जीने की इक उम्मीद को दिल मे जगा गया।
जैसे दवा बीमार को कोई पिला गया।
बीते कई अरसे हँसी होंठों पे न आई,
जादू था कोई उसमें वो पल में हँसा गया।
रंगीनियाँ भूला था ज़िंदगी की मैं सभी,
वो इश्क़ की सतरँगी चुनर को उढा गया।
सदियों से अँधेरों में थी बस्ती ये हमारी,
है शुक्र मेरे हक़ का वो सूरज उगा गया।
नीदें न थीं, सपने न थे, पथराई थीं आँखे,
कुछ लम्हे बिता साथ वो सपने सजा गया।
प्रदीप श्रीवास्तव - करैरा, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)