आज दीवारें खड़ी हैं,
मज़हबी ईंटें जड़ी हैं।
वे कहाँ ये समझ पाए,
कौन सी बातें बड़ी हैं।
चाहते हैं गिर न जाए,
रोज़ तो जंगें लड़ी हैं।
लोग चाँद पर पहुँचे पर,
सब वही बातें पड़ी हैं।
पास क्यों 'निर्वाण' जाए,
मुल्क़ की क़ौमें अड़ी हैं।
श्रवण निर्वाण - भादरा, हनुमानगढ़ (राजस्थान)