ज़िन्दगी की कशमकश - कविता - रविन्द्र कुमार वर्मा

कशमकश में ही गुज़रती जा रही है ज़िन्दगी,
वक़्त के हाथों से बच ना पा रही है ज़िन्दगी।
पहले हमने खूब जिया ज़िन्दगी को दोस्तों,
देखिए अब ज़िन्दगी को खा रही है ज़िन्दगी।
कशमकश में ही गुज़रती जा रही है ज़िन्दगी।।

हौसलें भी धीरे धीरे कम से कमतर हो गए,
जोश वाले लम्हे वो जाने कहाँ अब खो गए।
भीड़ में भी आजकल तन्हाई का अहसास है,
जो देती थी सुकुन अब सता रही है ज़िन्दगी।
कशमकश में ही गुज़रती जा रही है ज़िन्दगी।।

दिन हुए पहाड़ से सदियों सी रातें हो गई,
थमती ना थी पहले जो वो ख़त्म बातें हो गई।
लुफ्त देती थी जो महफ़िल शोर सा लगने लगी,
जाने किस दल-दल में धँसती जा रही है ज़िन्दगी।
कशमकश में ही गुज़रती जा रही है ज़िन्दगी।।

दोस्तों का भी कोई पैग़ाम अब आता नहीं,
जाने क्यूँ मुझको भी कोई पहले सा भाता नहीं।
थोड़े से रिश्ते हैं जो थामें है मज़बूती से डोर,
वर्ना हाथों से फिसलती जा रही है ज़िन्दगी।
कशमकश में ही गुज़रती जा रही है ज़िन्दगी,
वक़्त के हाथों से बच ना पा रही है ज़िन्दगी।।

रविन्द्र कुमार वर्मा - अशोक विहार (दिल्ली)

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