वितृष्णा - कविता - आलोक रंजन इंदौरवी

आशाएँ कितनी बढ़ जाएँ,
मन को अंकुश करना सीखो।
राहों में पत्थर मिलते हैं,
अपनी राहें गढ़ना सीखो।।
आशाएँ...
तुम हो पथिक एक तिनका सा,
तेज हवा में उड़ मत जाना।
कितना भी तूफाँ आ जाए,
तूफाँ से तुम जुड़ मत जाना।
पग अपना स्थापित करके,
तेज हवा में चलना सीखो।।
आशाएँ...
गगन तुम्हारा स्वागत करता,
धरती आश्रय देती है।
तेरी साँसें नीलाम्बर तक
निश दिन जीवन देती है।
परम पिता के अंश बने हो,
उसकी राह पे बढ़ना सीखो।।
आशाएँ...
अमृत रस का पान मिलेगा,
जीवन में उत्थान मिलेगा।
खुशियाँ होगी पग पग तेरे,
तुझको सब सम्मान मिलेगा।
सच्चे मन से सुबह शाम तुम,
इस दुनियाँ में ढलना सीखो।।
आशाएँ...
तृष्णा की चिंगारी तुमको,
विचलित करती रहती है।
मोह और माया की रस्सी,
तुमको बंधती रहती है।
सत्य सदा निश्छल होता है,
दीपक बनकर जलना सीखो।।
आशाएँ...

आलोक रंजन इंदौरवी - इन्दौर (मध्यप्रदेश)

Instagram पर जुड़ें



साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos