मंज़िल इतनी भी दूर नहीं,
कि ख़ुद चल कर, उसे पा न सके,
हालात हमारे, इतने न विकट
कि अपनों को आज़मा न सके।
थोड़ी कोशिश बस बांकी है,
पहुँचेंगे ज़रूर किनारे हम,
जज़्बात पर, अपने रख काबू,
ऊपर वाले के सहारे हम,
हमने देखे हैं कई पतझड़,
हर बार लगे हैं फूल नये,
तो चिंता कैसी, कैसी उलझन,
अवश्य लिखेंगे इतिहास नये।
हमने जो देखे थे सपने,
उनको साकार करेंगे हम,
कोई भी मुश्किल हो समक्ष,
हँस कर स्वीकार करेंगे हम।
सैयद इंतज़ार अहमद - बेलसंड, सीतामढ़ी (बिहार)