ये रेत के अवसर पर
समय के पदचिन्ह
सागर मिटाने को है आतुर
लग रहा कुछ खिन्न।
चिंतन चिता में सोच उसकी,
निरंतरता के तार को
कितना ग्रहण मैं कर सकूँगा
जीवन के लघु इस हार को।
क्या धूल के इस रक्त को
बीतते इस वक़्त को
कोई सबल रख पाया है
सबको समय ने खाया है।
विनय "विनम्र" - चन्दौली (उत्तर प्रदेश)