समर्पण - कविता - अभिषेक अजनबी

हम बुलाते रहे, वह भूलाते रहे।
इश्क में खूब जलते जलाते रहे।।

वह हमें छोड़ करके चले ही गए,
हम उन्हें आज तक गुनगुनाते रहे।
लाख ताने सहे प्यार के वास्ते,
प्यार का आशियाना बसाते रहे।
हम बुलाते रहे...

हम तड़पते रहे रात भर के लिए,
वह किसी और को, जा लुटाते रहे।
है तपन से भरी ज़िंदगी अब मेरी,
जीत मिलती नहीं मात खाते रहे। 
हम बुलाते रहे...

जो मिली थी सफलता मुझे इस ज़हाँ में
उसे इश्क में हम गंवाते रहे।
हमने उसके लिए सब को धोखा दिया,
अब वही भूल हमको रुलाते रहे।
हम बुलाते रहे...

हो गया दूर मैं ज़िंदगी से बहुत,
बात अपने ये मुझको बताते रहे।
खुश रहोगे नहीं तुम भी मेरे बिना,
वो हमी थे जो  तुमको हँसाते रहे।
हम बुलाते रहे...

है ना मुमकिन जीना अब तुम्हारे बिना,
भावना मन की कब से जताते रहे।
आज बन अजनबी देखते हैं हमें,
जो कभी बाँह में भर सुलाते रहे।
हम बुलाते रहे, वह भूलाते रहे।।

अभिषेक अजनबी - आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश)

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