चिट्ठी - कविता - डाॅ. वाणी बरठाकुर "विभा"

मैं चिट्ठी हूँ!
काग़ज़ के आविष्कार
से पूर्व 
मैं पैदा हुई,
यूँ कहों तो 
मैं आदिम 
मानव के 
हृदय में से 
निकली  
कुछ चिह्न हूँ...
कभी कठोर पात पर
कभी गुफाओं की
दीवारों पर 
कभी रेत पर लिखी
उनकी भावनाएँ 
और ख़बरें रही।
धीरे धीरे मुझे 
पत्तों पर
पेड़ों की छालों पर
लिखने लगे।
काग़ज़ के जन्म के बाद
काग़ज़ पर लिखी गई
देश-देश भेजी गई
फ़रमान बन गई।
कितने राजाओं की 
मैं गाली बनी 
एक-दूसरे में
जंग छेड़ दी
या 
बन्धुत्व भावनाओं को लेकर
उपहार बनी।

मैं चिट्ठी हूँ!
अंग्रेजों को भारत से
भगाने का 
क्रांतिकारियों के 
बीच बनाएँ योजनाएँ
बन कर एक-दूसरे में
फैलती गई। 
न जाने कितने 
प्रेमियों के बीच की
प्यार मुहब्बत का 
पैग़ाम बन गई 
गले लगाकर 
कितनों ने चूम लिया
कितनों के विरह आँसुओं से 
धुल गई।
सीमा पर रहे 
पति बेटे भाई की
प्यार से सनीं ख़बरें बनी
माँ पत्नी बहन 
मेरे ही इन्तज़ार में
दिन-रैन गुज़ारती।
कभी शहीद बनने की
ख़बरें बन अपनों के 
आँसू बहाती 
कभी देश का सिर ऊँचा कराती।

मैं ही हूँ चिट्ठी!
पत्र खत पैग़ाम ख़बर
चाहे जो नाम से पुकारो
मैं अवश्य आती 
डाकिया के पीठ पर
घर-घर जाती। 
कैसी थी वो कहानी
अनपढ़ को
डाकिया पढ़ सुनाता
मुझे मिलने से
कभी हँसते
कभी रोकर 
आँसू बहाते।
मैं चिट्ठी हूँ !
अब मुझे 
दुनियावाले
भूलने लगे हैं।
कभी पुरानी अलमारी से
जब निकलते 
यादों को पढ़कर 
हँसकर दादी
पोते-पोती को दिखाते
और कहते -
देख इसे 
यही है चिट्ठी 
जो तेरे दादाजी 
कभी हमारे लिए 
लिखा करते थे।
मैं चिल्लाने लगती 
कहने लगती-
देख मैं चिट्ठी हूँ!
हाँ, मैं ही चिट्ठी हूँ।।

डाॅ. वाणी बरठाकुर "विभा" - तेजपुर (असम)

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