ख़ामोशी का राज़ खोलती है नज़र।
सच को तलाशती खोजती है नज़र।
दिल ये बेज़ार होता रहा जब जब,
दर्द का अहसास, तोलती है नज़र।
राज़ फाश की लाख कोशिशें हुई,
दिल की हर बात बोलती है नज़र।
गुमसुम देख कर वजह न जान पाए,
दिल में छुपाए जो टटोलती है नज़र।
जिस्म नंगा देख, वहशी जानवर हुए,
भूखे भेड़िए बन के, नोचती है नज़र।
सब कुछ भला सा होता रहे यहाँ पर,
'अनजाना' न आए सोचती है नज़र।
महेश "अनजाना" - जमालपुर (बिहार)