काश! ऐसा होता! - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

काश! ऐसा होता!
चंद दिनों के लिए तुम हमारे...
और
हम तुम्हारे स्थान ले लेते...
तुम हमारी तरह पशु
और हम तुम्हारी तरह मानव बन जाते!

विवेक सागर के इसपार चर रहे होते तुम...
उसपार...
हम तर जाते।

काश! ऐसा होता!

अगर तुम पशु होते हमारी तरह...
बेजुबान...
कमज़ोर...
होते भी, नहीं भी,
हड्डी, खाल के अलावे भी न जाने...
शरीर के कितने अंगो की कीमत
लगती तुम्हारी...
मौके बे मौके पर...
क़ुर्बानी होती तुम्हारी...
बलि पर चढ़ाया जाता तुम्हें...

तुम कातर स्वर से प्राणों की भिक्षा माँगते...
भयभीत होकर चिल्लाते...
तो
हम तुम्हारी जगह रह कर...
सच्चा मानव धर्म निभाते।

देखते 'आत्मवत सर्वभूतेषु'...
करते जीवों पर दया...
चढ़ाते अपने भीतर में छुपे...
हिंसा और पाप रूपी पशुओं की बलि...
और
मानव जीवन के उद्देश्य पूरा करते।

काश! ऐसा होता!

चंद दिनों के लिए तुम हमारी तरह पशु...
और
हम तुम्हारी तरह मानव बन जाते!!

डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)

साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिये हर रोज साहित्य से जुड़ी Videos