भारत की बिन्दी - कविता - विनय विश्वा

मैं हिन्दी हूँ
जननी जन्मभूमि मातृभाषा हूँ
खड़ी बोली खड़ी होकर
मर्यादित, अविचल‌ आधार हूँ
मैं भारत का श्रृंगार हूँ।

इतिहास से लेकर अब तक मैं
सिंध से हिन्द, हिन्दी कहलाई मैं
आम जनों की बोली में
मुख से निकसत बोली मैं।

हिन्दी है भारत की बिन्दी
जस नारी श्रृंगार सुशोभित है
नारी की शोभा बिन्दी है
तो भारत की शोभा हिन्दी हैं।

तुलसी, सूर, कबीरा, जायसी
हिन्दी-साहित्य के उद्धारक है
महावीर, मैथिली, राजेन्द्र, शुक्ल
अमीर, प्रेम, भारतेन्दु, द्विवेदी
आदि विद्वतजन के
हिन्दी तारन हार है।

इनमें हिन्दी, हिन्दी इनमें
जस लागे पानी दूध
दूध पानी में
एक दूजे के बन बैठे
उद्धरण‌ उद्धारक ये।

वक़्त चलता गया
नायाब रत्न देता गया
रत्नगर्भा हो तुम
जन हृदय की शीतलता हो तुम
हिन्दी हो
भारत की बिन्दी हो तुम।

विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)

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