ज़रूरत - कविता - सन्तोष ताकर "खाखी"

यूँ बात से बाते बढ़ाने की ज़रूरत क्या थी,
लगता नहीं था दिल गर,
तो दिल जलाने की ज़रूरत क्या थी।


आग में घी डालना आदत थी मेरी,
गर समझते थे तुम ही इतना,
तो आग लगाने की ज़रूरत क्या थी।


लग चुकी थी आग तो धुआ उठता ही,
फिर राख से फूल छानने की ज़रूरत क्या थी।


अपनी उलझनों को बढ़ाते रहे यूंही,
छोड़ना ही था तो बहाने कि ज़रूरत क्या थी।


था यकीन नहीं मुझ पर तो,
मेरे ही संग ख़्वाब बुनने की ज़रूरत क्या थी।


छलकता था रंग अजनबी आँखों में,
इश्क़ के रंगों से रंगने की ज़रूरत क्या थी।


आज यहाँ, कल वहाँ ढूंढना था हमसफ़र,
तो हमसे हाथ मिलाने की ज़रूरत क्या थी।


वाक़िफ़ थे दोस्तों से हम भी,
मिलना नए दोस्तो से था गर, तो
हमसे निभाने की ज़रूरत क्या थी।


भर गया था मन साथ से इतना ही, तो
झूठा रिश्ता निभाने की ज़रूरत क्या थी।।


सन्तोष ताकर "खाखी" - जयपुर (राजस्थान)


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