वक़्त ख़ूब लगता हैं - कविता - कर्मवीर सिरोवा

नये-नये कोई भी हो सवाल, 
रटने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।

अभी-अभी तो शुरू हुई हैं कक्षा अपनी, 
साथियों संग गप-शप करने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।

अरे सर, जल्दी क्या हैं थोड़ा ठहरों, 
परीक्षा अभी बाकी हैं,
थोड़ा खा-पीकर पढ़ने में वक्त ख़ूब लगता हैं।

आदत से हम लाचार हैं, 
टिफ़िन साथ लेकर नहीं लाते,
डाँट खाकर पेट भरने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।

पड़ गई हैं आदत रोज पनिश होने की,
कभी मुर्गा तो कभी ऊपर हाथ,
सर को क्या पता,
करसत सीखने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।

कहते हैं सर, करो सब होमवर्क आराम से, 
अब उन्हें कौन समझाए,
सब धीरे-धीरे करने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।

फ़ीस जमा करा दी हमनें तो, प्रार्थना-सभा में झूठ ही कह डाला,
पोथी पन्ने खोलकर देखने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।

अब आगे क्या बोलूं आपसे, बड़े हैं उत्तर, 
नक़ल कर लिखने में आते हैं अंक अच्छे,
पर सर की आँखों से बचकर पेपर करने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।

जाते-जाते कर रहा हूँ बात पक्की,
पहली कक्षा से रट रहा हूँ किताबें सारी,
पर सर आप जैसा बनने में वक़्त ख़ूब लगता हैं।।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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