रानी दुर्गावती की अमर गाथा - कविता - मुकेश साहू

हाथी पर सवार तू, बैरी की संहार की,
बन रण-चण्डी तू, तीर की बौछार की।
तलवार की धार, चमकी जब अंबर में,
सर-धड़ अलग हुई, धस गई धरातल में।

नारी तू नारायणी, गढ़मंडला की रानी थी, 
गोंडवाना की शान बनकर, लिखी अपनी कहानी थी।
हार ना मानी मुगलों से, नारी तू  स्वाभिमानी थी,
अपने ही घर में बैठे, बैरियों से अंजानी थी।

रानी की युद्ध कुशलता देख, काँप रहे थे अभिमानी,
उनके ही मंसबदार अब, कर रहे थे बेईमानी।
हार रही थी रानी सेना, पर हारा ना उनका मन,
बैरियों के बिच खड़ी, लड़ रही थी हुंकार भर।

तभी सामने से तीर आया और भेद गई आँख को,
तन से गिरी पवित्र लहू, स्नान करा रही धरातल को।
फिर भी रानी तीर निकाल, चली हराने हार को,
चंडी बनकर बड़ रही थी, तभी घेर लिया कल्यानी को।

घायल सी हो गई रानी, अब कैसे बचाते सम्मान,
लिए हाथ खंजर, कर गई सिने पर वार।
ऐसी नारी युगों-युगों में, जन्म लेते है धरती पर,
मातृभूमि की शान बनकर, अमर हो गई रणभूमि पर।

मुकेश साहू - राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)

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