प्रेम का सुखद पल
अच्छा था!
उन क्षणों में;
जब मैं
पास होता,
बिल्कुल पास।
बातों ही बातों में
सब कुछ
लुटा देता अपना
ज्ञान, विवेक।
खो देता,
धैर्य संतोष।
खुशियाँ बिखरती,
बसन्ती आँगन में।
कोयल कूकती,
हृदयस्थ तट पर।
वह पल;
अच्छा था,
बहुत ही अच्छा।
सोचता मैं, कि
अब रह सकता हूँ;
कुछ क्षण
अलग, एकांत
ख़ुशी के साथ।
पर!
नहीं सह सकता,
इक पल की भी तन्हाई।
कारण;
लू चलने लगती,
माघ के महीने में भी।
अमावस खड़ी दिखती,
पूनम की रोशनी में
मूक, निस्तब्ध।
पर!
ऐसा क्यों?
चाह; अपनत्व
इतनी बलवती!
खैर, जो भी हो
प्रेम-सागर में डूबना
अच्छा था।
प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)