(९)
देंगे नहीं लगान, चुआड़ों ने हुंकारा।
चाहे जाए जान, हमें न लगान गवाँरा।
तीर-धनुष के संग, विरोधी निकले घर से।
मचा दिए हुड़दंग, रहे चुपचाप न डर से।।
नीलामी पंचेत, उन्हें मंजूर नहीं था।
वापस अपना खेत, उन्हें लेना जरूर था।
राह किए अवरोध, चुआड़ों ने सह दल-बल।
होने लगा विरोध, आपसी झगड़े-दंगल।।
गोरे हुए सचेत, भूमिपुत्रों से अतिशय।
लौटाए पंचेत, समाया उर तल में भय।
लेकिन कर संताप, रहा प्रांतों पर जारी।
व्यप्त रहा विक्षोभ, भूमिपुत्रों में भारी।।
फिर क्या हुआ पतंग? किरण पट अपना खोलो।
जंगल महल प्रसंग, जुड़ी हर गाथा बोलो।
जंगल महल प्रदेश, हमें दर्शन करवाओ।
ममता करे गुहार, मिहिर! अथ कथा सुनाओ।।
डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)