मिहिर! अथ कथा सुनाओ (भाग १८) - कविता - डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी"

(१८)
मिली नहीं जमीन! योजना रही विवादित।
आशा हुई मलीन, हुई रैयतें प्रभावित।
मिशनरियों पर आस, लगाई फिर से रैयत।
असफल रहा प्रयास, लाख की सबने मिन्नत।।


भड़क उठे तत्काल, आदिवासी जन सारे।
मन में ले उत्ताल, गए बिरसा के द्वारे।
थे बिरसा भगवान, अहिंसा सत्य पुजारी।
देते थे सद ज्ञान, बड़े ही थे उपकारी।।


सरकारी चक्रांत, किया बिरसा को विचलित।
बदले निज सिद्धांत, हुए थे बिरसा मुखरित।
तीर-धनुष ले हाथ, दिकूओं को ललकारे।
थे बिरसा के साथ, स्थानीय मुण्डा सारे।।


पकड़े राह नवीन, पुरातन को बिसराए।
खूँटकट्टी जमीन, सतत वापस दिलवाए।
किंतु क्रुद्ध सरकार, खार बिरसा पर खाई।
दोषी किए करार, जेल तक थी पहुँचाई।।


थे गए कई बार, जेल वे बारी-बारी।
बन कर आया काल, रूप लिए महामारी।
गए काल के गाल, समाए बिरसा प्यारे।
झारखण्ड के लाल, जगत के राज-दुलारे।।


तुमने कह जोहार! झुकाए थे सिर दिनकर।
बिरसा का जयकार, किए थे गर्वित होकर।
बिरसा जय जयकार, हमें करना सिखलाओ।
ममता करे गुहार, मिहिर! अथ कथा सुनाओ।।


डॉ. ममता बनर्जी "मंजरी" - गिरिडीह (झारखण्ड)


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