कर्ज़ - कविता - अवनीत कौर

ज़िंदगी में हर इक रिश्ते का
अपना कर्ज़ है
ज़िंदगी में आए रिश्तों की
अपनी ही इक गर्ज है
इन रिश्तों के कर्ज़ ने
भरी ज़िंदगी में मर्ज है।

कर्ज कुछ ऐसे जुड़े, 
जो कर गए कर्ज़दार
दिल को न सकुन मिला,
न मिला करार
साँसों की डोर से बंधा रहा
कर्ज़ का हकदार।

ज़िंदगी ने जोड़ दिया उस कर्ज पर
बेइंतहा ब्याज,
बोझ बेइंतहा बढ़ता गया
मूल का कोई मूल्य न रहा
अहसानों के ब्याज ने,
ज़िंदगी कर दी बेमूल्य।

कुछ कर्ज ज़िंदगी में राज रहे
ज़िंदगी में गिराते वो गाज रहे
पल पल सहा उस दर्द का कसक
कर्ज़ मुक्त होने के लिए
ज़िंदगी के लम्हों की
खत्म की चहक।

अवनीत कौर "दीपाली सोढ़ी" - गुवाहाटी (असम)

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