अगर भीम न होते - कविता - नीरज सिंह कर्दम

ना कोई सम्मान मिलता
ना मिलता कोई अधिकार
आज भी कीड़ों मकोड़ों की तरह
जमीन पर रेंगते होते हम
अगर भीम न होते।


पीछे झाड़ गले में हाण्डी लटकी होती
जिस्म पर होते फटे हुए कपड़े
पैरों में बन्धी वही घंटी होती
सर पर गुलामी का ताज होता
अगर भीम न होते।


महाड़ आन्दोलन करके
पानी हमको दिया था
वरना वहीं जानवरों की तरह
पानी पीना पड़ता
अगर भीम न होते।


हम आज मनु के शूद्र होते
गांधी के हरिजन होते
ना इस देश के मूलनिवासी होते
ना होते कांशीराम के बहुजन
अगर भीम न होते।


जो सम्मान आज नारी को मिला है
ना सम्मान से जी पाती नारी
बराबरी का हक कौन दिलाता
ना शासक नारी होती ना शिक्षित नारी होती
अगर भीम न होते।


ना सदन में कोई होता
ना सदस्य कोई होता
ना मंत्री कोई होता
ना वोटर हम होते
अगर भीम न होते।


आज भी मनु का विधान होता
अगर बाबा साहब ने यहां का विधान
भारत का संविधान लिखा ना होता
ना कोई आईएएस-पीसीएस होता
अगर भीम न होते।


ना तथागत हमे मिलते
ना धम्म बुद्ध का मिलता
बुद्ध के विचारों को कौन यहाँ जिन्दा रखता
बुद्ध धम्म की दीक्षा कौन दिलाता
अगर भीम न होते।


नीरज सिंह कर्दम - असावर, बुलन्दशहर (उत्तर प्रदेश)


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