युद्ध अभी शेष है (भाग ६, आखिरी भाग) - कहानी - मोहन चंद वर्मा

समय गुजरता गया। महामारी कम होती चली गई।
रात से दिन और दिन से रात होती चली गई।
तपते सूरज की गर्मी थी।
पतझड का मौसम फिर धूल भरी आंधी थी।
कभी वर्षा थी। फिर हरी-भरी हरयाली थी। आसमान में रंगबिरंगा इंद्रधनुष था।
ठंडी हवा का झौका था।
तपते सूरज की ठंडक थी।
बदलते मौसम की ऋतु थी।

सभा कक्ष में संदेशवाहक बोला, ’सम्राट की जय हो। सभी राज्यों से सूचना है।’
सम्राट: क्या सूचना है?
संदेशवाहक: महामारी जा चुकी है। जो रोग ग्रस्त थे वे भी स्वस्थ हो चुके है।
मंत्री: सम्राट ये सब हुआ है उन नियमो का पालन करने से।
सम्राट: अगर आज शिष्य जीवित होता तो वह देखता उसके नियमों ने महामारी को समाप्त कर दिया।
वैद: समाप्त कर दिया है ऐसा मान सकते है। पर जड़ सहित ऐसा माना नहीं जा सकता।
दूसरा सम्राट: आप उस देश को लेकर तो नहीं बोल रहे हो जिसमे अभी भी महामारी का प्रकोप है और वहाँ की लापरवाही के कारण वो देश मानव जाति से बंजर हो चुका है। अब तो धीरे-धीरे पशु-पक्षी भी मर रहे है।
वैद: जी नहीं सम्राट।
सेनापति: उस दिशा को छोडकर फिर ऐसा क्यूँ नहीं माना जा सकता की अन्य दिशाओं में महामारी जड़ सहित समाप्त हो चुकी है।
वैद: मान लो आपको पेट दर्द है इलाज के बाद आपका दर्द चला गया आप पहले जैसे ठीक हो गए। तो अब ये बताइए क्या आपको वापस कभी पेट दर्द नहीं होगा।
सेनापति: होगा...।
वैद: ठीक इसी तरह महामारी है। जो कभी ना कभी किसी को वापस हो सकती है।
सम्राट: फिर इसका उपाय क्या है वैद जी।
वैद: सावधानी और स्वच्छता बनाए रखना।
एक सम्राट: इस रोग का प्रकोप अब पहले जैसा नहीं तो जीवन सुरक्षित है पर उस प्रलय का क्या जो आ रही है।
आचार्य: मात्र दस दिन बच्चे है अब तो प्रजा को पता होना चाहिए।
सम्राट: हम आपकी बात से सहमत है। अब समय आ चुका है की प्रजा को पता होना चाहिए। अब ऐलान करा दिजिए।

फिर प्रजा को बताया गया।
’’सुनो-सुनो ना कोई आदेश ना कोई नियम धरती पर फैलने वाला रोग से तो सामना कर चुके है अब समय है बाहरी प्रलय का धरती अंत की ओर जा रही है। ब्रह्माण्ड में कोई विशाल काय पत्थर है जो धरती की ओर आ रहा है अर्थात् धरती पर प्रलय अब ये प्रलय है या उस पत्थर का धरती के करीब से गुजरना।’’

’’मैनें कहा था ना प्रलय आने वाली है मेरी सुनता कौन है?’’
एक वृद्ध आदमी के बीच में बोलने पर उसने पूछा, ’तुम्हें ये बात कहा से पता चली?’ तो एक औरत बोली, ’अभी कुछ दिन पहले धरती हीली थी उसी को लेकर ऐसा बोलता रहता है।’

’’लेकिन अब तो ये बात सच निकली।’’
दूसरे आदमी के बोलने पर उसने कहा, ’जो भी होगा समय पर होगा समय बताएगा।’
इस प्रकार धरती के समस्त मानव जाति को खबर लग चुकी थी।

प्रलय से सात दिन पहले
धार्मिक कर्मकाण्ड का प्रचल बढ़ा।
ज्योतिष कारको ने प्रलय को लेकर कल्पना की।

सम्राट रोग ग्रस्त हो चुके थे।
’’वैद जी ने ठीक ही कहा था। रोग जड़ सहित समाप्त नहीं होता। महामारी जा चुकी थी ऐसा मान लिया गया था। लेकिन फिर भी ये रोग कहीं ना कहीं पनप रहा था और आज देखो में भी इस महामारी का शिकार हो गया।’’
’’जैसे सब ठीक हो गए वैसे ही आप भी ठीक हो जाएगें।’’
’’अब ठीक होकर भी क्या करे जब सब मरने वाले है।’’
’’ऐसी बात है तो फिर मैं आपसे दूर क्यूँ रहूँ आपके पास आकर बैठूगी। फिर चाहे मुझे भी क्यूँ ना हो ये महामारी।’’

प्रलय आई है।
धरती पर प्रलय आ रही है।
जललजा आ रहा है।

रोकने से भी ना रूके।
ना कोई रोक सके...

तभी सम्राट ने महारानी से कहा, ’ये कौन है जो ऐसे समय भी कविता गा रहा है।’
महारानी: बाहर कोई है? द्वारपाल, सेविका, सैनिक।
सम्राट: कोई नहीं है किसे बुला रही हो।

महाराानी कक्ष से बाहर निकलकर देखी तो कोई नही था। उसने वापस वहीं तीन नाम दौहराकर कहती है, बाहर देखो कौन है जो कवीता गा रहा है।’ सेविका सामने आकर बोली, ’जी अभी देखती हूँ।’ कुछ देर बाद सेनिका आकर कक्ष के बाहर से कहती है, ’महारानीजी कोई महात्मा है।’
सम्रााट: द्वार पर महात्मा जी आए है और हम उनके चरण स्पर्श भी नहीं कर सकते।
महारानी: हाथ जोड़कर दूर से प्रणाम तो कर सकते है।
सम्राट: ऐसी स्थिति में किसी से मिला अर्थात् महामारी को बढ़ाना है। उन्हें कुछ चाहिए तो दे दे।
महारानी: और कविता जो गा रहे है।
सम्राट: गाने दो ऐस वक्त पर किसी के मन की भावनाओं को रोकना पाप होगा। उनसे कहिएगा ये कविता सभी को सुनाए।
सेविका: जी सम्राट।

प्रलय आई है।
धरती पर प्रलय आ रही है।
जललजा आ रहा है।

रोकने से भी ना रूके।
ना कोई रोक सके।

मरना है सबको एक दिन जीने की आसा ना छोड़े।
धरती पर प्रलय आ रही है।
जललजा आ रहा है।

सूरज फिर भी उदय होगा अस्त भी होगा।
अमावस्या भी होगी पूर्णिमा भी होगी।
सूर्य ग्रहण भी होगा। चंद्रग्रहण भी होगा।
वर्षा भी होगी हरयाली भी होगी।
फूलो की सुंगध भी होगी।
फल और सब्जी से लदे बगीचे भी होगे।
खाने वाले जीव भी होगें।
उत्सव की यात्रा भी होगी।
शव यात्रा भी होगी।
जलजला फिर भी आएगा।
नवनिर्माण की रचना की घटना फिर होगी।
जलजला फिर भी आएगा।
रोकने से भी ना रूके।
ना कोई रोक सके।
मरना है सबको एक दिन जीने की आस ना छोड़ो....!

प्रलय से तीन दिन पहले
धार्मिक कर्मकाण्ड का प्रचल और अधिक बढ़ा।
ज्योतिष कारक मौन हो चुके थे। और उस समय का इंतजार कर रहे थे।

ना गर्मी थी।
ना ठंड थी।
दोनो के बीच का अतंर था।
किसान अपनी लहराती फसलो को देख रहा था।
कुमार अपने बनाए मिट्टी के बर्तनों और चाक को देख रहा था।
मां बच्चों को खेलते देख रही थी।
शाकाहारी पशु चर रहे थे तो मांसाहारी पशु शाकाहारी का शिकार कर खा रहे थे।
पक्षी दाना तो कोई कीड़ों को खा रही थी।
बच्चा रो रहा था मां उसे अपना दुध पीला रही थी।
श्मशान में चिता जल रही थी। तो कोई गंगा स्नान कर रहा था।
पिंजरे में कैद तोते को बंदर ने आकर दरवाजा खोला वह पींजरे से निकलकर आसमान में अपने साथियों संग उड़ने लगा।

प्रलय से एक दिन पहले
समय की घटना थी।
पल भर में होनी थी।
मार्ग रिक्त होने लगे थे।
नल की भाँति मटके से टप-टप गिरती पानी की बूँद साफ सुनाई दे रही थी।
अन्न को ले जाती चिटीयों की फौज।
उस बूँद-बूँद गिरता जल उन सभी चिटीयों को बहा ले गया।

पाँच साल की बेटी माँ की गोद में लेटी थी।
’’माँ मेरे सभी दोस्त कह रहे थे सब मरने वाले है।’’

वह चुपचाप बैठी आसमान में छाए बादलो को देख रही थी।
’’माँ बोलोना सब मरने वाले है।’’
’’हां....!’’
’’फिर मेरे राजकुमार का क्या होगा।’’
’’वह भी मर जाएगा।’’
’’एक दिन राजकुमार आएगा। ब्याह करके ले जाएगा। फिर ब्याह का क्या होगा।’’
’’पता नहीं ईश्वर की लिला है वही जाने क्या होगा?’’
’’सब बच गए तो ऐसा होगा ना माँ...।’’
’’हां होगा पर पता नहीं।’’

तभी पिता को आते देख कर माँ की गोद से उठकर पिता के पास गई।
’’पिताजी आप तो रोज भगवान की पूजा करते हो।’’
’’क्या बात है आज ऐसा प्रश्न क्यूँ?’’
’’मेरे दोस्त कह रहे थे सब मरने वाले है। पिताजी भगवान से कहोना ऐसा ना करे। बाबू अभी छोटा है जब वह बड़ा होगा तो मुझे उसके साथ भी खेलना है। फिर मेरा राजकुमार भी तो आएगा मुझसे ब्याह करने।’’

बेटी की बात सुनकर उसने पत्नी की और देखा। दोनो एक दूसरे को आँसू भरी आँखों से देख रहे थे।

शाम का समय था। जो गुजर गया। 
रात होने चली।
आसमान साफ था।
सितारे टिमटिमाते नजर आ रहे थे। चाँद भी आधे रिंग की भाँति चमक रहा था।
खुली आँखों से नजर ना आने वाला वह पत्थर दूरबीन से देखा जा रहा था।
तभी वह नजर आया। उसकी गति अत्यधिक तीव्र थी। उसने जाकर कहा, ’आचार्य जी वो दिखा। आ रहा है तीव्र गति से।’ आचार्य ने भी देखा वह पहले से बेहतर साफ नजर आ रहा था। मानो वह सूर्य का कोई हिस्सा था। वह आग के गोले की भाँति चमक रहा था। उसे अब खुली आँखों से साफ देखा जा सकता था। वृद्ध आदमी ने जोर-जोर से चिल्लाकर सबको बोला,
’’देखो वो आ गया।’’

कक्ष में लेटे सम्राट खिडकी से आसमान को देख रहे थे। टिमटिमाते सितारो के साथ वो चाँद भी नजर आ रहा था। महारानी सम्राट से कहती है।
’’उठो देखो वो आ गया।’’


सभी ने उसे देखा। सभी को नजर आ रहा था।
कहाँ गिरेगा ना जाने अब क्या होगा।
सभी के चेहरे पर डर की लकीरे साफ नजर आ रही थी।
लेकिन वृद्ध आदमी हँस रहा था।
आचार्य समय की धारा को गुजरे देख रहे थे। पत्थर उस समय की गति से भी अधिक तीव्र था। आधी रात गुजर चुकी थी। बाकी थी वो भी गुजर गई। सूर्य उदय हो चुका था। प्रलय का दिन था इस पूरी रात में पत्थर धरती के करीब आ चुका था। वह लुप्त सा हो चुका था ना तो वह खुली आँखों से देखा जा सकता था ना ही दूरबिन से आसमान में बादलो का जाल था। तभी किसी खगोलशास्त्री को वो पत्थर दिखा। फिर वो पत्थर गिरा उस स्थान पर जो दिशा महामारी से श्मशान बन चुकी थी। एहसास हुआ जब धरती में कंपन हुआ। पक्षी आकाश में उड़ गए। पशु उठकर भागे। समुद्र की भाँति नदी के जल की भाँति धरातल लहराती हुई दूर-दूर तक गई आसपास के सभी राज्य धरती में समा गए। धरती फटी बांध टूटा। पर्वत खिसका ज्वाला मुखी फटा। आग की वर्षा और राख का गुब्बार था। बहता लावा और जल प्रलय थी। महलों का धरासाही और लोगों के चीखने चिल्लाने की आवाज थी। गुरू ध्यान लगाए बैठे थे धरती में समा गए। महात्मा मंदिर की घंटी को पकडे जल में डुबे हुए थे। तभी मंदिर धरासाही हो गया। जिस दिशा में देखो उधर जिवन उथल-पुथल हो चुका था। लाशे तेर रही थी चाहे पशु-पक्षी की हो या इंसानो की। पर एक पर्वत जिस पर नन्हा सा पौधा जिस पर खिला फूल उस पर बैठी तितली। और पत्ते पर बैठी एक चिटी जिसके मुहँ में था अन्न का एक दाना।

समाप्त


मोहन चंद वर्मा - जयपुर (राजस्थान)


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