दास्ताँ मेरी - गीत - कवि संत कुमार "सारथि"

तनहाइयाँ कह रही, दास्ताँ मेरी,
मैं कर रहा हूँ बयाँ, दास्ताँ मेरी।


कहता रहा ज़माना, और कहती रही सदाएं
गुज़रे पल याद करूँ तो, आँख डबडबाऐं
मेरा वजूद क्या है, कहे राज़दार मेरी।
तनहाइयाँ कह रही...


किस से गिला करें हम, है गर्दिश ए ज़माना
मझधार में है कश्ती, साहिल का ना ठिकाना
है दर्द का यह दरिया, या बेकसी है मेरी।
तनहाइयाँ कह रही...


कल तक जो साथ मेरे, अब हो गए पराए
ग़ैरों से कहीं ज़्यादा, अपनों ने ज़ख्म लगाए
चलना ही ज़िंदगी है, रुकना है मौत मेरी।
तनहाइयाँ कह रही...


जलती है आज मेरे, अरमानों की चिताएँ
शहनाइयों से कह दो, कहीं और जाकर गाऐं
नहीं है करार दिल को, नहीं जुस्तजू है मेरी।
तनहाइयाँ कह रही दास्ताँ मेरी,
मैं कर रहा हूँ बयाँ, दास्ताँ मेरी।


कवि संत कुमार "सारथि" - नवलगढ़ (राजस्थान)


साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिये हर रोज साहित्य से जुड़ी Videos