ऐ! चाँद आज न जाने क्यूँ
निःशब्द सी हूँ।
तुझे देखकर बस यूँ ही
स्तब्ध सी हूँ।
कभी उनका तो कभी खुद का
एक अक्स सा तुझमें उभरता है।
बस फिर बार बार छुपता निकलता है।
फिर मचलता है सिहरता है।
तो कभी सिसकता सा है।
ऐ चाँद तुमने कितने युग देखे
हर युग के गवाह बन चुके हो,
सच सच बताना क्या देखा था
तुमने पिछली सदियों में हमदोनो को?
ऐसे ही यूँ बस तड़पते हुए
या सिहरते हुये संवरते हुए?
यूँ ही एक दूजे पर मरते हुए?
यूँ ही मिलते बिछड़ते हुए?
कब तक चलेगा ये खेल,
छुपमछुपायी का बचपने सा,
कब तक ये अक्स यूँ बनेगा
मिटेगा?
सुनो आखिर कब तक?
कुछ तो बता दे ऐ! मेरे चाँद!
सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)