भारतीय संविधान दर्शन एवं आदर्श - आलेख - शैलेष मेघवाल

स्वतंत्रता, समता, बंधुता, न्याय, विधि का शासन, विधि के समक्ष समानता, लोकतांत्रिक प्रक्रिया और धर्म, जाति, लिंग और अन्य किसी भेदभाव के बिना सभी व्यक्तियों के लिए गरिमामय जीवन भारतीय संविधान का दर्शन एवं आदर्श है। ये सारे शब्द डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर जी के शब्द और विचार संसार के बीज शब्द हैं। इन शब्दों के निहितार्थ को भारतीय समाज में व्यवहार में उतारने के लिए आजीवन संघर्ष करते रहना चाहिए। इसकी छाप भारतीय संविधान में देखी जा सकती है।

डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर जी भारतीय संविधान की सामर्थ्य एवं सीमाओं से भी बखूबी अवगत थे। इस संदर्भ में उन्होंने कहा था कि संविधान का सफल या असफल होना आखिरकार उन लोगों पर निर्भर करेगा जिन पर शासन चलाने का दायित्व है। वे इस बात से भी बखूबी परिचित थे कि संविधान ने राजनीतिक समानता तो स्थापित कर दी है लेकिन सामाजिक और आर्थिक समानता हासिल करना बाकी है जो राजनीतिक समानता को बनाए रखने के लिए भी जरूरी है। मित्रों! बाबा साहब डाॅ. भीमराव अंबेडकर जी द्वारा की गई देश व समाज की सेवाओं के यूं तो अनेक आयाम हैं लेकिन संविधान निर्माण के वक्त उसकी प्रारूप समिति के अध्यक्ष के तौर पर निभाई गई जिस भूमिका ने उन्हें ‘संविधान निर्माता’ का दर्जा दिया वह इस अर्थ में अनमोल है कि आज हम अपनी राजनीति में नियमों, नीतियों, सिद्धांतों, नैतिकताओं, उसूलों व चरित्र के जिन संकटों जो कि दो-चार हैं उनका अंदाज़ा उन्होंने तभी भांप लिए था जब उन्होंने संविधान लागू होने के पहले और उसके बाद इनको लेकर कई आशंकाएं जताई और आगाह किया था कि ये संकट ऐसे ही बढ़ते गए तो न सिर्फ संविधान बल्कि आजादी को भी तहस-नहस कर सकते हैं।

दुख की बात है कि तब किसी ने भी उनकी आशंकाओं पर गंभीरता नहीं दिखाई। उन्हें नजरअंदाज करने वालों से तो इसकी अपेक्षा ही नहीं की जा सकती थी लेकिन उन्हें पूजने की प्रतिमा बना देने वालों ने भी संकटों के समाधान के लिए सारे देशवासियों में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता बढ़ाने वाली बंधुता सुनिश्चित करने के उनके सुझाए रास्ते पर चलने की जहमत नहीं उठाई। इसलिए आज कई बार हमें उनके पार जाने का रास्ता ही नहीं दिखता।

संविधान के रूप में बाबा साहब की जो सबसे बड़ी ताकत हमारे पास है उसे व्यर्थ कर डालने का इससे बड़ा षडयंत्र भला और क्या होगा कि उसकी प्रस्तावना में देश को संपूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक ,गणराज्य ,बनाने का संकल्प वर्णित है लेकिन हमारी चुनी हुई सरकारों ने देश पर थोप दी गई नवउदारवादी पूंजीवादी नीतियों को इस संकल्प का विकल्प बना डाला है। संविधान की आत्मा को मार देने के उद्देश्य से वे बार-बार उसकी समीक्षा का प्रश्न उछालती हैं तो उनकी शह प्राप्त विभिन्न विरोधी सत्ताएं उसके अतिक्रमण पर उतरी रहती हैं। यह अतिक्रमण मुमकिन नहीं होता अगर बाबा साहब की भारतीयता की यह अवधारणा स्वीकार कर ली गई होती- "कुछ लोग कहते हैं कि हम पहले भारतीय हैं, बाद में हिंदू या मुसलमान। मुझे यह स्वीकार नहीं है। मैं चाहता हूं कि लोग पहले भी भारतीय हो और अंत तक भारतीय रहें। भारतीय के अलावा कुछ भी न हो।"

भारतीय संविधान की खास बात यह है कि ये न तो कठोर है और न ही लचीला है यानि कि भारतीय संविधान के कुछ अनुच्छेद ऐसे भी हैं जिन्हें संसद बिल्कुल साधारण बहुमत से भी बदल सकती है। इसी वजह से भारतीय संविधान को लचीला और नरम संविधान कहा जाता है। वहीं कुछ अनुच्छेद ऐसे हैं जिनमें बदलाव करने के लिए संसद के 2/3 बहुमत और भारत के आधे प्रदेशों की सरकार की सहमति जरूर होती है। सरकारों की सहमति से ही कुछ संशोधन किए जाते हैं इसलिए इस संविधान को कठोर संविधान कहा जाता है।

अभी भी समय है हम सब संविधान की अंतरात्मा को समझें वरना जैसा डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर जी ने कहा था कि “जो लोग गैर-बराबरी से उत्पीड़ित होंगे वे उस राजनैतिक लोकतंत्र को नेस्तनाबूद कर देंगे।” जब (2017 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले में) अनुसूचित जाति प्रताड़ना-विरोधी कानून को शिथिल किया गया तो स्वतःस्फूर्त विद्रोह हुआ। बड़ी तादाद में दलित युवा सड़कों पर आ गए और कानून को शिथिल करने का फैसला वापस लेना पड़ा।

आज वर्तमान में उच्च शिक्षण संस्थानों के विद्यार्थी भी केवल अपने हकों की ही लड़ाई नहीं लड़ रहे वरन संविधान की प्रस्तावना में जिस समतामूलक, न्यायपूर्ण, अभिव्यक्ति-आस्था की आजादी और बंधुत्व पर आधारित ‘संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य’ का सपना ‘हम भारत के लोग’ ने 26 नवंबर 1949 को देखा था उसकी लड़ाई भी लड़ रहे हैं। छात्र-छात्राओं ने शहीद-ए-आजम भगतसिंह के ‘विद्यार्थी और राजनीति’ (1928) के आलेख को आत्मसात कर लिया है कि ‘पढ़ाई और लड़ाई साथ-साथ।’ डॉ. बाबा साहब अम्बेडकर जी के ‘शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो’ का आह्वान अब केवल दलित युवाओं की ही नहीं, वरन सभी युवाओं की पूरी पीढ़ी की चेतना बन चुका है।

शैलेष मेघवाल - सामरानी, रानीवाड़ा (राजस्थान)

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