महिला गीतकारों की कमी - लेख - सलिल सरोज

महिला फिल्म गीतकारों की संख्या आज भी गिनीचुनी है। यह सोचने की बात है कि एक महिला ने फिल्मों में गीत सबसे पहले 1955 में लिखे थे, लेकिन फिर भी बॉलीवुड में पुरुष गीतकार ही छाए रहे। साहिर लुध्यानवी व अमृता पीतम ने शायरी का सिलसिला लगभग साथ ही आरम्भ किया था। दोनो लाहौर रेडियो में साथ काम भी करते थे, दोनो में पेम भी था, दोनो ने साहित्य में अपना विशेष स्थान भी हासिल किया, लेकिन साहिर बॉलीवुड में बतौर गीतकार छाए रहे और फिल्मों के नाम पर अमृता को सिर्प यह मिला कि उनके उपन्यासों पर कुछ फिल्में बनीं। 1955 में गुरुदत्त की `मिस्टर एंड मिसेज 55' आयी थी। इस फिल्म का एक गीत `पीतम आन मिलो', जिसे गीता दत्त ने गाया था, इतना मशहूर हुआ कि कई दशक बाद इसका इस्तेमाल गुलजार ने अपनी फिल्म `अंगूर' में भी किया। इस गीत को सरोज मोहिनी नायर ने लिखा था। वह हिन्दी फिल्मों के लिए गीत लिखने वाली पहली महिला थीं।

हिंदी फिल्मों की महिला गीतकारों में एक नाम जो सबसे ज्यादा चर्चित और लोक प्रिय हुआ वह नाम रानी मालिक का है। पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से वो कर्णप्रिय और लोगों की ज़बां पर घुल जाने वाली मौशिकी का इज़हार करती रही हैं अलबत्ता बाज़ीगर का "छुपाना भी नहीं आता", आशिकी का "धीरे धीरे से मेरी ज़िंदगी में आना ", मैं खिलाड़ी तू अनादि का "चुरा के दिल मेरा " और मेहरबान फिल्म की दिलकशिश "अगर आसमां तक मेरे हाथ जाते तो क़दमों में तेरे सितारे सजाते " लेकिन इनके आगे और इनके पीछे बहुत दूर तक महिला गीतकारों की कमी दिखाई पड़ती है।  यह बात सबको पता है कि हिंदी फिल्म जगत में बेहतरीन अभिनेत्रियां शायरा भी रही हैं जैसे कि मीना कुमारी और दीप्ति नवल।  किसी ने सही कहा है कि  मीना कुमारी को अगर उनकी शायरी से जानो तो उनमें फैज मिलते हैं, गुलजार और गुरु दत्त भी उतने ही साफ़ नज़र आते हैं। बैजू बावरा, परिणीता, साहिब बीवी और ग़ुलाम और पाकीज़ा जैसी फ़िल्मों में अपनी अदाकारी से हिंदी सिनेमा की 'ट्रेजडी क्वीन' का ख़िताब पाने वाली अभिनेत्री मीना कुमारी असल ज़िंदगी में भी हमेशा ग़मों और तक्लीफ़ों से दो चार रहीं। सिनेमा के पर्दे पर जहां उन्होंने किरदारों के दुखों को जिया, तो वहीं अपने दर्द के इज़हार करने के लिए मीना कुमारी ने शायरी का सहारा लिया।मीना कुमारी का एक बहुत दिलचस्प पहलू है कि वे अभिनेत्री के अलावा एक शायरा (कवयित्री) भी थीं। मीना कुमारी की शायरी उनके 'ट्रेजडी क्वीन' होने के एहसास को और पुख़्ता करती हैं। उन्होंने अपनी शायरी में अपनी ज़िंदगी की तन्हाईयों को बख़ूबी बयां किया है। मीना कुमारी ने कभी नहीं चाहा कि उनकी नज़्में या ग़ज़लें कहीं छपें। हालांकि, उनकी मौत के बाद उनकी कुछ शायरी 'नाज़' के नाम से छपी। आर्थिक तंगी से तो मीना कुमारी का परिवार उबर गया, लेकिन वह ख़ुद ज़िंदगी भर दुखों की गिरफ़्त से नहीं निकल पाईं। अपनी ज़िंदगी में वह जितनी कांटों और दर्द भरी राहों से गुज़रीं उसे ही उन्होंने शायरी में ढाल दिया -

"आगाज़ तॊ होता है अंजाम नहीं होता
जब मेरी कहानी में वो नाम नहीं होता

जब ज़ुल्फ़ की कालिख़ में घुल जाए कोई राही
बदनाम सही लेकिन गुमनाम नहीं होता"

इसी तरह दीप्ति अच्छी न केवल अच्छी शायरा हैं बल्कि  बहुत अच्छी शायरा होने की सलाहीयत रखती है। लफ़्जों का चुनाव और उनका आहंग दीप्ति की शायरी की खुसूसियत है:-

“आसमानों में बुझे हुए ख़्वाबों का धुआं सा”

“जब बहुत कुछ कहने को जी चाहता है ना
तब कुछ भी कहने को जी नहीं चाहता”

“कांगड़ी में आंच अभी बाकी है
और आस-पास . . . कोई नहीं . . .”

इसी क्रम में माया गोविन्द ने भी अनेक यादगार गीत लिखे, लेकिन यह कवयित्री  बॉलीवुड में लंबे समय तक के लिए न टिक सकीं। बहरहाल, अब समाज बदल रहा है। फिल्मी दुनिया में बहुत सी युवा महिला गीतकार आ रही हैं। उन्हें अपनी पतिभा का पदर्शन करने के लिए पर्याप्त अवसर भी मिल रहे हैं। इसलिए उम्मीद की जाती है कि यह नई पतिभाएं बॉलीवुड में लंबी पारी खेलने में कामयाब रहेंगी। इन उभरती गीतकारों में जो अपनी पहचान बना चुकी हैं, उनमें ये नाम बहुत ही प्रमुखता से स्थापित हो चुके हैं।

कौसर मुनीर:
कौसर मुनीर एक प्रसिद्ध बॉलीवुड गीतकार हैं। इन्होंने बजरंगी भाईजान, डियर ज़िंदग़ी, सीक्रेट सुपरस्टार और पैडमेन जैसी कई सुपरहिट फ़िल्मों के गाने लिखे हैं। ये है इनका लिखा एक बेहतरीन गाना

"फलक तक चल साथ मेरे
फलक तक चल साथ चल
ये बादल की चादर
ये तारों के आँचल
में छुप जाएं हम पल दो पल"

अन्विता दत्त गुप्तन:
अन्विता ने नील एंड निक्की, दोस्ताना, लक, टशन और हे बेबी जैसी कई फ़िल्मों में गाना लिखा है। वह यशराज फ़िल्म्स के मुख्य लेख़कों में से एक हैं।
क्वीन फ़िल्म में लिखा उनका यह गाना बेहद ख़ूबसूरत है।

"ढूंढे हर इक सांस में, डुबकियों के बाद में
हर भंवर के पास
किनारे
बह रहे जो साथ में, जो हमारे खास थे
कर गये अपनी बात
किनारे"

प्रिया पांचाल:
प्रिया सराईया ने सिमरन, हसीना पार्कर, एबीसीडी और भूमि जैसी कई फ़िल्मों के गाने लिखे हैं। रमैया वस्तावैया का यह गाना ख़ासा प्रसिद्ध हुआ था।

"जीने लगा हूं पहले से ज्यादा
पहले से ज्यादा तुमपे मरने लगा हूं
मैं मेरा दिल और तुम हो यहां
फिर क्यूं हो पलके झुकाये वहां
तुम सा हसीं पहले देखा नहीं
तुम इससे पहले थे जाने कहां
जीने लगा हूं पहले से ज्यादा"

पद्मा सचदेव:
पद्मा सचदेव ने फ़िल्मी गीतों के साथ साथ कवि और उपन्यास भी लिखे हैं, वह डोगरी भाषा की पहली आधुनिक महिला कवियित्री हैं। वह पद्मश्री से सम्मानित हैं, उन्होंने साहस, प्रेम बारात और आँखों देखी के गाने लिखे हैं।
यह एक गाना उन्होेंने फ़िल्म आँखों देखी में लिखा था।

"सोना रे तुझे कैसे मिलूं
कैसे कैसे मिलूं
सोना रे तुझे कैसे मिलूं
कैसे कैसे मिलूं
अम्बुआ की बगिया
झरना के नदिया कहा मिलूं
तुझे कैसे मिलूं
कैसे कैसे मिलूं"

इंदु जैन:
इंदु जैन ने चश्मे बद्दूर, स्पर्श और कथा जैसी फिल्मों के गाने लिखे हैं। उनका लिखा गाना कहाँ से आए बदरा बहुत ही ख़ूबसूरत लिखा गया है।

"कहाँ से आए बदरा
घुलता जाए कजरा
कहाँ से आए बदरा
घुलता जाए कजरा"

यह प्रश्न प्रासांगिक है कि बॉलीवुड में महिला गीतकारों को ज्यादा अवसर क्यों नहीं दिए गए? गीतकार प्रसून जोशी इसके लिए फिल्मोद्योग को दोषी नहीं मानते हैं। उनके अनुसार ऐसा भी नहीं है कि अच्छी महिला गीतकार आयीं और उन्हें ठुकरा दिया गया। वह कहते हैं कि महिलाएं इस क्षेत्र में अपनी मर्जी से नहीं आयीं। जोशी के अनुसार, `मेरा मानना है कि महिलाओं की ज्यादा दिलचस्पी गायन में है। कुछ कला महिलाओं को ज्यादा आकर्षित करती हैं, जबकि कुछ पुरुषों को आकर्षित करती हैं।' `फलक तक' टशन फिल्म से अपनी पहचान बनाने वाली कौसर मुनीर का कहना है कि गीत लेखन महिलाओं के लिए कठिन क्षेत्र है। यह प्रतिस्पर्धा से भरा हुआ क्षेत्र है और इसमें गायन व अभिनय की तुलना में अवसरों की कमी है। फिर फिल्मोद्योग बहुत सी महिलाओं के लिए डरावना स्वप्न भी हो सकता है। आपको सिटिंग के लिए ऐसी जगहों पर बुलाया जा सकता है जहां आप जाना पसंद न करें। कौसर मुनीर बताती हैं, `मैं इस मामले में किस्मत वाली रही कि फिल्मोद्योग में मेरे बहुत से दोस्त हैं और मैं टेलीविजन सीरियल जस्सी जैसी कोई नहीं के लिए लिख चुकी हूँ, जिससे मैं एक नयी पहचान बना सकी हूँ। 'इस बात से प्रिया पांचाल भी सहमत हैं। उन्होंने समीर के साथ `फालतू' के लिए कुछ गीत लिखे और `शोर इन द सिटी' के लिए भी गाने लिखे। प्रिया पांचाल का कहना है कि महिला गीतकार के लिए संघर्ष बहुत तीव्र है। साथ ही उनका मानना है कि भारत में अच्छी कविताएं लिखने वाली महिलाएं तो बहुत हैं, लेकिन बॉलीवुड के गीतों को लिखने का अंदाज बहुत भिन्न है। ध्यान रहे कि प्रिया पांचाल फिल्मों में गायिका के रूप में आयी थीं, उन्होंने कल्याणजी आनंदजी के साथ 2000 से अधिक शो भी किए। फिर वह गीत लिखने लगीं क्योंकि वह कुछ रचनात्मक करना चाहती थीं। `इमोशनल अत्याचार' (देव डी के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त करने वाले अमिताभ भट्टाचार्य का कहना है कि शायद महिला गीतकार इसलिए डरती हों कि इस क्षेत्र में पुरुषों की संख्या बहुत ज्यादा है। उन्हें इसके अलावा कोई अन्य कारण नजर नहीं आता कि इस क्षेत्र में महिलाएं क्यों नहीं आ रही हैं, खासकर यह बहुत अच्छा समय है जब महिलाएं व पुरुष मिलकर साथ काम कर सकते हैं। लेकिन कौसर मुनीर इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि गीत लेखन का क्षेत्र `ब्वायज क्लब' अधिक है जहां वह चर्चा के लिए साथ बैठते हैं और इसलिए महिलाओं के लिए गुंजाइश नहीं या कम है। तकनीकी दृष्टि से पुरुष गीत लिखने के अधिक अभ्यस्त होते हैं, बावजूद इसके कि महिलाएं अधिक रोमांटिक होती हैं और उनके दृष्टिकोण वाले गीत में ज्यादा गहराई भी होती है। बहरहाल, जोशी का कहना है कि गीत लेखन एक ऐसा कार्य है जिसमें बहुत सा लचीलापन मिलता है और शायद इसलिए महिलाओं को फिल्मोद्योग से अधिक प्रेरणा की जरूरत है कि आगे आएं और लिखें। जोशी की बात से प्रिया पांचाल सहमत हैं। वह कहती हैं, `मेरी बहुत सी महिला मित्र हैं जो रैप लिखना चाहती हैं और गीत की विभिन्न कलाओं से नए प्रयोग करना चाहती हैं। लेकिन बॉलीवुड में असुरक्ष बहुत है। इसलिए प्रेरणा या उत्साह बढ़ाना एक बड़ा मुद्दा है। महिलाओं को बहुत ज्यादा हौसला अफजाई की जरूरत है।'

महिला संगीत निर्देशकों की भी काफी कमी है। लेकिन अब इस क्षेत्र में भी महिलाएं आ रही हैं, जिनमें स्नेहा कनवलकर विशेष रूप से शामिल हैं। उन्होंने `गैंग्स ऑफ वासेपुर' के लिए लीक से हटकर बहुत अच्छा संगीत दिया है। उनका कहना है कि रचनात्मक प्रक्रिया  में लिंग का कोई महत्व नहीं होता है। महिलाओं के साथ काम करते हुए सिर्फ  इस बात का फर्क  पड़ता है कि उनके कपड़े पुरुषों से भिन्न होते हैं। लेकिन बिना प्रतिभा  के बॉलीवुड में प्रवेश करने का प्रयास नहीं करना चाहिए वरना तमाम कोशिशें बेकार हो जाएंगी। एक शहरी महिला के लिए सबसे दर्दनाक बात यह होती है कि उसे सामाजिक दबाव के खिलाफ भी संघर्ष करना पड़ता है और व्यक्तिगत तौरपर अपनी महत्वाकांक्षाओं के लिए भी। महिलाओं में सिर्फ वही आगे आने का साहस करती हैं जिनमें अविश्वसनीय प्रतिभा होती है। औसत प्रतिभा वाली महिलाएं बाहर निकलने की हिम्मत नहीं दिखातीं।

जब तक महिला गीतकार महिला की नज़र से बहुत सारी सामजिक मुद्दों पर अपनी बात नहीं रख पाएंगी, समाज को सिर्फ पुरुष गीतकार के नज़रिये का ही पता चल पाएगा जो एक लम्बे अंतराल के बाद उस समाज की सम्पूर्ण एकात्मक सोच में तब्दील हो जाएगी जिसमें समाज के आधे हिस्से को गूंगा कर देने की अपार शक्तियां निहित होंगी। कब तक पुरुष गीतकार महिलाओं को चाँद और तारे से तोल कर उसे किसी प्रेयसी और किसी कमसिन सुकुमारी से तुलना करते रहेंगे और फिर किसी पुरुषवादी सोच के पुरुष के हाथों मसल देने के वैचारिक हथियार का ईज़ाद करते रहेंगे। महिलाओं को आगे आकर अपनी सोच भी इन विषयों पर उजागर करनी चाहिए ताकि समाज को स्टीरियोटाइप से छुटकारा मिले। पुरुष गीतकार जब लिखते हैं कि चांदी जैसा रंग है तेरा सोने जैसे बाल तो क्या उसी एवज़ में उस महिला, जिसकी खूबसूरती का बखान किया जा रहा है, को अपने मन की छटपटाहट या ख़ुशी लिखने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए ? जो स्त्री चांदी और सोने के गुणगान में खुद को रोज़ सुबहो - शाम सुनती है और समाज के किसी कोने में वही जब बलात्कार की भोगिनी बनती है तब लगता है कि स्त्रियों को भी अपने ऊपर लिखे गीतों का सटीक जवाब देना चाहिए या प्रतिकार करना चाहिए। किसी भी समाज में, इतिहास साक्ष्य है कि औरतों को कभी कोई हक़ बिना युद्ध के नहीं मिला और जो हक़ मिला वो तब मिला जब पुरुषों ने चाहा और उतना ही मिला जितना पुरुषों ने तय किया। जब हिंदी फिल्मों में महिला गीतकारों की संख्या बढ़ेगी तभी दो पक्षों की बातों को सुन कर समाज और देश असली दिशा तय कर पाएगा।  

सलिल सरोज - मुखर्जी नगर (नई दिल्ली)

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