अहंकार का पलायन - लघुकथा - उमाशंकर मिश्र

घुमडते हुए बादल हवाओं के सहारे कही जा रहे थे
मानो उस किसान के खेत मे जिसे पानी की आवश्यकता थी प्रकृति सबकी आवश्यकताओ को ध्यान मे रखी थी।

इधर एक ऋषि बरगद के पेड़ के नीचे ध्यान मग्न थे प्यास जोरों से लगी थी तभी उपर से उडता हुआ एक पक्षी ने बीट कर दिया।
बीट ऋषि के सिर पर गिरा और क्रोध चरम सीमा पर 
क्रोध मे ही वह उपर देखे और पक्षी जलता हुआ उनके सामने गिरा।

अपनी विजय पताका को फहराते हुए ऋषि जी प्यास को बुझाने चल दिये। कंधे पर भौतिक सामान कष्ट दे रहा था।
यह भौतिकता कष्ट ही देती है लेकिन इंसान इसे छोड नही पाता है।

एक ट्यूबवेल पर स्वच्छ पानी आ रहा था और किसान वही खडा था।
ऋषि जी ने आदेश मुद्रा से किसान से कहा कि लोटा लाओ हमे पानी पीना है प्यास लगी है।

महाशय जी पानी स्वच्छ है और जिस रास्ते से जा रहा है वह पवित्र नाली है आप दोनो हाथ के चुल्लू से आसानी से पी सकते है मेरा घर बहुत दूर है।

घुरते हुए और नजरो को उपर करते हुए ऋषि जी ने कहा मुझे सिखाओ मत! मुझे जानते नही हो।

यह सुनकर अपने कर्तव्यों के प्रति पूर्णतया समर्पित किसान को भी गुस्सा आ गया।

सुनिये ऋषि जी किसान ने कहा मै पक्षी नही हूँ, गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए 25 साल से तपस्या कर रहा हूँ।

अब ऋषि जी का गुस्सा उतर चुका था।
अहंकार भाग खडा हुआ। अपने सामान को समेटे वहां से चल देने मे ही ऋषि जी को भलाई लगी और किसान अपने काम मे लग चुका था।

उमाशंकर मिश्र - मऊ (उत्तर प्रदेश)

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