वहशी मानव - कविता - भागचन्द मीणा

कहते हैं आदित्य मनुज तुम,
कौन राह पर निकले हो
बदल चुके हो अन्धकार में,
असुर राह पर निकले हो।

लालच में अंधे हो कर तुम,
खुद को कितना बदल चुके हो
पूर्वज सभी सोचते होंगें,
तुम कितने वहसी निकले हो।

मर्यादा कर छिन्न-भिन्न,
तुम मानवता को भुला चुके हो
अंहकार हवस के चलते,
अपनों के दुश्मन निकले हो।

धर्म ग्रंथों में वर्णित,
सबको को भुला गए हो
पढ़े लिखे कहलाने वाले,
तुम कितने अनपढ़ निकले हो।

मौत सजा छोटी है,
मानव कृत्य तुम जो करते हो
बतलाओ तुम अपने मुंह से,
तुम कितने बदतर निकले हो।

आत्मा की शांति के लिए,
पिंड दान जो करते हो
पर अपनी मनमानी से तुम,
संस्कृति पिंडदान करने निकले हो।

भागचन्द मीणा - बून्दी (राजस्थान)

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