जब भी तुम्हें देखता हूँ;
तेरी छवि पहले से मोहक लगती है।
संशय होता है
तुमसे बात करने में;
भय लगता है,
अपने प्यार का इज़हार करने में।
कि, कहीं अस्वीकार न कर दे।
तुम किसलय पर ओस की बूँद सी
लुभाती हो छूने के लिए;
एहसास होता है,
तेरी अंतर्भावना का।
ऊँची ऊँची पहाड़ियों से घिरी;
हरी चादर बिछी वसंती आँगन में,
तुम प्रतीक्षारत हो।
आँखो में हजारों सपने लिए
डूबता जाता मैं,
प्रेम के अनन्य सागर में;
मन:स्तिथियों के ऊहा पोह में।
अचंचल चित्त; व्यग्र अंतर्मन से,
तुम्हें पाना चाहता हूँ।
पर!
तुम भी तो कह सकती हो।
समझ सकती हो,
मेरी अंतर्व्यथा को
क्यों?
सिर्फ! मैं ही कहूँगा?
तुम नहीं!
प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)