श्रम प्रेम - कविता - विनय विश्वा

ज्येष्ठ की तपती भरी दोपहरी 
श्याम सलोनी रुप सुनहरी
माथे पे है पगड़ी धारी
गुरु हथौड़ा हाथ है भारी।

मुख मंडल की छटा निराली
हर प्रहार है जठराग्नि पर भारी
हर प्रहार है जठराग्नि पर भारी।

माथे से है ढुलक-ढुलक कर
स्वेद सुशोभित होता है
श्रम का है प्रसाद सजन
घन-घन बूंद बरसता है
घन-घन बूंद बरसता है।

आशा है प्रतिपल फलों का
सजनी है घर की बाट निहारें
बच्चे भी है व्याकुल अब तो
भूख, ममता की प्यार पुकारे
भूख ममता की प्यार पुकारे।

कर्म ही पूजा कर्म ही दान
कुटुंब में आए सर्वस्व प्यार
मां की लोरी पिता का प्यार
धरा पर है स्वर्ग का भान
ये है सबसे बड़ा संसार
यहीं है सबसे बड़ा प्यार
यहीं है जन का आधार।

विनय विश्वा - कैमूर, भभुआ (बिहार)

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