माँ - कविता - नूरफातिमा खातून "नूरी"

उंगली पकड़ा के चलना सीखाती है माँ
हर ज़ख्म पर मरहम लगाती है माँ

जमाना जब भी हमें ठोकर लगाया
उठा कर अपने सीने से छहलगाती है माँ

जब भी भटके मंज़िल की तलाश में
मेरे लिए रात भर खुदा को पुकारती है माँ

हम भले ही पचास साल पार करले
मेरे बच्चे की उम्र ही क्या ये सुनाती है माँ

तपती धूप से जब भी घर आये हम
तड़फड़ा कर आंचल में छुपाती है माँ

माँ है तो पूरा दुनिया है हरा -भरा
हमारे खातिर कितने दुःख उठाती है माँ

मायके से जब भी ससुराल जाती है” नूरी”
आँखों में आँसू लिए दरवाजे पर आती है माँ

नूरफातिमा खातून "नूरी" - कुशीनगर (उत्तर प्रदेश)

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