देख कठिन तमाशा रो दिया।
हाय! दुर्लभ जीवन खो दिया।।
लोकहित था मानव का धर्म,
फिर भी क्यों नही समझा मर्म।
निज पथ पर काँटे बो दिया।
हाय! दुर्लभ जीवन खो दिया।।
कागज के टुकड़ों पर दौड़ा,
संतोष परम धन को छोड़ा।
कम रहा क्यों जो कुछ वो दिया
हाय! दुर्लभ जीवन खो दिया।।
अंतर में ईर्ष्या द्वेष लिए,
सफेद चादर छल वेष किए।
ले पाप की गठरी ढो दिया।
हाय! दुर्लभ जीवन खो दिया।।
चला चली का बेला आई,
मेरे हाथ मैं कुछ न आई।
समय नित दिन माया को दिया।
हाय! दुर्लभ जीवन खो दिया।।
संजय राजभर "समित" - वाराणसी (उत्तर प्रदेश)