बयानबाजी का दौर - हास्य व्यंग्य (आलेख) - कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी

बयान बाजियों का दौर भी अपना एक लॉलीपॉप लेकर आता है, जिसमें घोर तपस्वी अपनी-अपनी गुफाओं से निकलकर आ जाते हैं अपने चमत्कृत कर्म से भावों को शब्दों में पिरो कर बयानों को तुकांत में भिड़ा कर प्रतिद्वंदी पर आक्रमण कर बैठते हैं और चुनाव नतीजों तक हक पर अड़े रहते हैं, माइक, कैमरा वाली स्वतंत्र गाड़ियां घूमा करती हैं कि कब कल्याणमयी रॉकेट का सफल परीक्षण कर बैठे। हमारे बयान बाजियों के बादशाह घोर तपस्वी नेता श्री मतदाताओं की नब्ज को टटोल रहे हैं, पर यह कोई चिकित्सिय बीमारी का इलाज करने वाली नब्ज़ नहीं है और ना ही कोई नाड़ी देखकर बताने वाला है डॉक्टर है यह दौर तो बयानबाज़ियों का जातिगत समीकरण को साधने का पुराना ढर्रा है और सुशासन तो इस बार की संजीवनी है और लाली पॉप विजय रथ की निशानी तथा विजय झुनझुना व्यस्त रखने का उपकरण बयान बाजियों  के दौर में कौन किसका रिश्तेदार कब बन जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। बड़ा भाई छोटा भाई भी बन जाता है छोटा भाई बड़ा भाई बन जाता है कब बुआ-भतीजा का रिश्ता जाग जाएं जो विजय रथ में लटकने के लिए समीकरण जाल बिछाने के लिए प्रतिद्वंदी को रिश्तो के चक्रव्यू से हरा ही देता है यह तो बयानबाज़ियों का दौर है जो जेल के अंदर से ही "अबकी जनता के शासन की बारी" ताबड़तोड़ जनता के लिए कल्याणकारी भूमिका निभा रहे हैं हर साख पर उल्लू बैठा लगाकर चुनाव के रथ पर सवार रहते कांटों को फूल में बदल रहे हैं, बयानों के दौर में जातिगत समीकरण से गणित वाले सवाल 15 साल पुराने फार्मूले से हल कर रहे हैं। "का हाल बा" के विजय रथ पर सवार हैं, बैनर-होर्डिंग के तामझाम की समस्याओं से  मुक्त हैं चुनावी विजय रथ पर सवार होकर नीली स्याही की उंगलियों का गिनने तक का इंतजार है जिसमें तुम्हारे और हमारे कल्याण का हित भूसे में सुई ढूंढने के बराबर छुपा हुआ है जिसमें सभी तपस्वी तब से 5 वर्षों तक समस्याओं का हल खोजते हैं तब कहीं जाकर अधूरे हितों को अमलीजामा पहनाते हैं बयान बाज़ियों का दार है इसमें यही कामयाब होते हैं।

कवि कुमार प्रिंस रस्तोगी - सहआदतगंज, लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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