यूं भी कोई मुझको बे-ज़ार कर गया!
बिला - वजह ही तक़रार कर गया!
खुला रक्खा था दर मैंने भी अपना,
खड़ी कोई यहां दीवार कर गया!
बिना आंगन के कैसे घर में रहें नस्लें,
यही इक मसअला बीमार कर गया!
मिलती है मौत जिंदगी से सस्ती यहां,
सौदा इंसानियत का बाज़ार कर गया!
आकर झूठी ख़बरों से आजिज़ इंसान,
ख़ुद को हवाले - अख़बार कर गया!
मोहम्मद मुमताज़ हसन - रिकाबगंज, टिकारी, गया (बिहार)