नवीन स्त्रीवाद - कविता - मनोज यादव

मैं कलंकित अतीत को धिक्कारती हूँ
उस कदीमी समाज को धिक्कारती हूँ।
मैं स्त्री हूँ, हूँ मैं नारी 
मैं अब जरा जोर से चिंघाडती हूँ।।

मैं जली थी, उन बेजान चिताओं पर
मैं ही सुबकी थी, उस कनात के ओट से
लेकिन अब मै नवीन नारी हूँ, हूँ मैं स्त्री
और अब, मैं अपने सारे हुक़ूक़ मांगती हूँ।।

मुझे भी चाहिए, दिन का उजाला
मुझे भी चाहिए, आधी काली रात।
मैं भी उड़ना चाहती हूँ, आसमानों में
मुझे भी चाहिए, खुला आसमान।।

मैं ही क्यों छुपाऊ अपने वक्षो को
मैं ही क्यों मर्दित होऊ।
मैं ही क्यों ओट धरु कनातों की
मैं ही क्यों अब सती होऊ।।

अब हर पैमाना बदलना चाहिए
सूरज अब पश्चिम वाला निकलना चाहिए।
सुख-दुःख में सबका हिस्सा हो
ऐसा नियम निकलना चाहिए।।

कर्तव्यों का बोझ नही, अब अधिकारों पर दावा हो
खुली सड़कों पर हम घूमे, यह अधिकार हमारा हो।
ऐसी शक्ति, ऐसा संबल हो हृदय के कंपन में 
जिससे तोडे जंजीरो को और पूरे  विश्व पर दावा हो।।

मनोज यादव - मजिदहां, समूदपुर, चंदौली (उत्तर प्रदेश)

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