सब सुलझा लगता हैं - कविता - कर्मवीर सिरोवा

मसअला कई हैं मेरे ज़ेहन-ओ-दिल में,
तू पास आ जाये तो 
सब सुलझा लगता हैं।

हक़ीक़त की जमीं 
ख़्वाबों को देनी ही नहीं,
इस बाहर की दुनिया से 
बड़ा डर लगता हैं।

मैं अकेलेपन में भी 
कहाँ अकेला रहता हूँ,
मिरी ख़ल्वतों में 
तेरा साया साथ लगता हैं।

निग़ाहों को जब से 
तिरा दीदार हुआ हैं,
अब्तर दिल का 
हर कोना जवाँ लगता हैं।

गुफ़्तगू-ए-इश्क़ में 
जब से वो नूरानी हुई,
कहती हैं, आईने से मिलना 
ख़ूब लगता हैं।

इस मौसम में भी 
फ़लक घटा से खाली हैं,
मुझें मिरा बचपन 
बड़ा खूबसूरत लगता हैं।

तेरी बज़्म में 
मोहब्बत करने फिर आऊँगा,
पेशानी पे अभी थोड़ा 
और तिमिर लगता हैं।

घर से निकला हूँ 
माँ की दुआएं पहन के,
ग़ुरबत में भी कर्मवीर 
कितना ख़ुश लगता हैं।

कर्मवीर सिरोवा - झुंझुनू (राजस्थान)

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