बेचारे बेरोजगार - कविता - प्रशान्त "अरहत"

बहुत भोले होते हैं बेचारे
बेरोज़गार!
वे नहीं जानते लड़ना; 
अपने रोज़गार।
शिक्षा, स्वास्थ्य और
अपने हक़ के लिए।

तभी वंचित रहते हैं।
तमाम सरकारी योजनाओं के
बाबजूद।

उन्हें मयस्सर नहीं होती  मूलभूत
आवश्यक चीजें भी।
खून चूसती है उनका;
ये शोषणकारी व्यवस्था और
बेतहासा मुद्रास्फीति। 
जिस दिन वे सीख जायेंगे लड़ना,
अपने हक़ के लिए।
वे बना लेगें तलवार; अपनी 
कलम को।
लिखने के लिए नया इतिहास;
इस व्यवस्था के ख़िलाफ़ 
अपने खून की स्याही से।
जिस दिन सभी संगठित होकर निकल पड़ेगें 
सड़कों पर 
इंक़लाब जिंदाबाद! का नारा देकर।

उस दिन उनकी आवाज से 
फट जायेंगे नेताओं के कान, 
थर थर कांपेंगी राजमहलों की दीवारें, 
हिल जायेंगे तख़्त और पलट जाएंगी व्यवस्थाएं।

प्रशान्त "अरहत" - शाहाबाद, हरदोई (उत्तर प्रदेश)

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