पानी - कविता - उमाशंकर राव "उरेंदु"

जरा गर्दन उचकाकर देखो
आसमान की तरफ
धरती पर आने को आतुर है कोई
बूँद बनकर 
पेड़ों की फुनगियां पकड़ कर 
पर हाय! तुम निष्ठुर !
धरा के सारे वृक्षों पर 
चलाने लगे आरियाँ
बंजर पैदा करने के लिए 
कैसे उतरेगी सिहरती बूंद अब?
बिना पेड़ों के धरती पर!
बेपानी होकर मुरझा जाएगी
एक दिन यह सृष्टि 
और जीवन मुर्दे की तरह अकड़कर 
बनकर रह जाएगा जीवाश्म ।
पहाड़ों को मत काटो 
मत तोड़ो संतुलन उसका 
हवा उससे टकराकर
खींच  लाती है पानी
जरा गर्दन उचकाकर देखो
आसमान की तरफ
धरती पर आने को है आतुर कोई
बूँद बनकर ।

उमाशंकर राव "उरेंदु" - देवघर बैद्यनाथधाम (झारखंड)

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