आलिंगन - कविता - आलोक कौशिक

पृथक् थी प्रकृति हमारी 
भिन्न था एक-दूसरे से श्रम 
ईंट के जैसी सख़्त थी वो 
और मैं था सीमेंट-सा नरम 

भूख थी उसको केवल भावों की 
मैं था जन्मों-से प्रेम का प्यासा 
जगत् बोले जाति-धर्म की बोली 
हम समझते थे प्यार की भाषा 

प्रेम अपार था हम दोनों में मगर 
ना जाने क्यों नहीं होता था हमारा मिलन 
पड़ा प्रेम का जल ज्यों ही हम पर 
सीमेंट संग ईंट सा हुआ दृढ़ आलिंगन

आलोक कौशिक - बेगूसराय (बिहार)

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