आज भी इंतज़ार है - कविता - प्रवीन "पथिक"

आज सुबह सुबह अचानक;
उनकी याद मस्तिष्क में,
मेघों सा छा गई।
वो लम्हें,
मुझे विस्मृत करना चाहती थी।
जिन्हें,
मैंने साथ साथ बिताए थे।
आज भी,
उन डायरी के पन्नों में सॅंजोयी रखी है।
सावन की,
वह पहली मुलाक़ात।
वह उनकी,
मंद मंद हसीन मुस्कान।
बारिश में,
भीगा सिहरा तन।
अधरों से,
टपकते बारिश के जलकण।
श्यामले परिधानों में;
लिपटी,
चमकती काया।
ऑंखों में,
बसी;वह प्यार की छाया।
सहेजे रखे हैं।
भादो की,
अमावस सी काली रात;
मुझे डराती थी।
बिछुड़ने से,
सहमा जाती थी।
कतिकी के,
पूर्णिमा के लगे मेले में,
व्यतीत किए;
साथ साथ वो प्यारे पल।
आज भी,
ऑंखों के सामने प्रमुदित हो;
दिखाई देते हैं।
सर्दी की,
कपकपाती काली रात,
संयोग पक्ष के;
ख़्वाब का साथ।
पतझड़ के झड़ते पत्तों से;
उनके सपनें।
उन पन्नों में जड़ित है।
पर !
आज भी,
डायरी के कुछ पन्नें अधूरे हैं।
उनके इंतज़ार में;
सावन में,
फिर से, एक बार;
उनके कोमल स्पर्श का,
अभिनव एहसास के साथ।

प्रवीन "पथिक" - बलिया (उत्तर प्रदेश)

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