मूसे - गीत - रविकांत सूर्यवंश "ग़ाफ़िल"

दो मांगे की रोटी खाकर, जब भूखा सो जाता मूसे। 
इस समाज के दायित्वों पर, प्रश्नचिन्ह हो जाता मूसे।

नाम मात्र कपड़ों में लिपटी,
नाम मात्र मूसे की काया।
ठिठुरे, जलते, गीले मौसम,
वह जाने कैसे सह पाया।। 

जाने कैसे हर पीड़ा सह, मुस्कान बो जाता मूसे। 
जब दिन ढलता, रात बीतती, बंजारा हो जाता मूसे।

पागल की पहचान लिये जब, 
वह उंगली से फर्श खोदता।
भाई शाब पईसा, केवल कहकर,
गूढ़ अर्थ ले हाथ जोड़ता।

जब बुझती, सूनी आँखों के, सपनों में खो जाता मूसे।
बुद्धिजीवियों के विलोम तब, बोधिसत्व हो जाता मूसे। 

बच्चों से घुलमिल बतियाता,
ठुमक-ठुमक कर नाच दिखाता
टुकड़े-टुकड़े गाने गाकर,
फरमाईश पूरी कर जाता।

नकली निश्छल हँसी सुनकर, बिन आँसू रो जाता मूए।
अपनी धुन में मगन मस्त तब, अंतहीन हो जाता मूसे।

हर भाषा में अभिवादन कर,
पलट जेब खाली दिखलाता
मंदिर-मस्जिद, गुरुद्वारा क्या,
हर आले को शीश झुकाता॥ 

पहने कपड़ों सहित नहा जब, चबूतरे धो जाता मूसे।
तब हर मज़हब से कुछ ऊपर, खुद मज़हब हो जाता मूसे।

प्रेमचंद की किसी कथा का,
पात्र नहीं बन पाया मूसे। 
किसी निराला की कविता में,
अब तक नहीं समाया मूसे।।

किन्तु एक बीड़ी के बदले, जब बोझा ढो जाता मूसे। 
ओढ़े एक अपरिचय परिचित, सचल व्यंग्य हो जाता मूसे।

नियति नाट्य के अतिमंचन का,
सूत्रधार हो जाता मूसे।
दो मांगे की रोटी खाकर,
जब भूखा सो जाता मूसे।

रविकांत सूर्यवंश "ग़ाफ़िल" (रवि ठाकुर) - दतिया (मध्यप्रदेश)

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