एक नारी की कहानी - कविता - प्रिया पाण्डेय

कब तक डर -डर कर रहोगी, 
घुट -घुट कर जीती रहोगी, 
पति को ईश्वर मानती हो, 
वो गलत है तुम सब जानती हो, 
गाली, मार सब सह लेती हो, 
अपना अपमान क्यों सह लेती हो, 
तुम्हे तो भगवान ने भी ना समझा, 
बस बेटे पैदा करने की मशीन है समझा, 
सब की सेवा का क्या फल पाया तुमने, 
कब तक यू चुप खड़ी रहोगी, 
खुद को तुम जरा पहचानो, 
खुद की लड़ाई खुद लड़ना जानो, 
वरना इस समाज ने तो देवी तक को ना बख्शा, 
मीरा को भी जहर पिलाया, 
सीता को देनी पड़ी अग्नि परीक्षा, 
द्रौपदी को पांच पतियों ने जुए मे हारा, 
अहिल्या को पत्थर की मूरत बनाया, 
गलती बस उनकी इतनी थी, 
नारी कुल मे जन्म लिया, 
समझो पुरुष की इस खेल को, 
कब तक इनको झुठलाओगी, 
कब तक यू घुट -घुट कर जियोगी, 
अब तो उठाओ आवाज अपनी,
चलो अपनी एक पहचान बनाओ, 
समाज को नई दिशा दिखाओ, 
खुद का फैसला खुद लेना सीखो, 
तुम अब अपनी एक नई राह बनाओ, 
तुम अब अपनी एक पहचान बनाओ |


प्रिया पाण्डेय - उत्तरपाड़ा (पश्चिम बंगाल)

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