राजस्थान के एक छोटे से गाँव से निकलकर मैं; मुंबई आया था, मगर यहां की भागमभाग और भीड़ भड़क्के ने मुझे अंदर तक हिला दिया था। हर जगह भीड़ ही भीड़; ऐसी कोई जगह नहीं, जहां भीड़ न हो, यह भीड़ मुझे किंकर्तव्यविमूढ़ कर देती थी। यह भीड़ मुझे निरीह व संवेदनाओं से रिक्त लगती। कीड़े-मकोड़ों सी रेंगती इस भीड़ को किसी से कोई मतलब, कोई सरोकार नहीं था.. भले ही कोई घायल आदमी सड़क पर तड़पकर मर जाये, किंतु इसके पास न रूकने का समय था, न मदद करने का भाव। छ: महिने लगे मुझे इस भीड़ और मुंबई को समझने में।
मेरा फ़्लैट अंधेरी स्थित सरदार पटेल नगर की एक पाश कॉलोनी में था; जिसका नाम था गुलमोहर सोसायटी। बहुत ही आलीशान गगनचुंबी ईमारतों से घिरी यह एक रिहायशी कॉलोनी थी, जिसमें बनाया गया था, हरा-भरा, सूरम्य आधुनिक पार्क। यहां बैठने हेतु बड़ी ही सुंदर स्टीलनैस कुर्सियां लगीं थीं तो कहीं-कहीं पत्थर की कुर्सियां भी थीं।हालांकि इकलौते अमलतास को छोड़कर इस पार्क में अन्य कोई बड़ा पेड़ नहीं था। बस, मैंहदी के झाड़ क्रमबद्ध तरीक़े से लगे हुए थे और बीच में देशी-विदेशी नस्ल के फूलों की पंक्तियां बनी थी, जिनमें- गुलाब, मोगरा, चंपा, रातरानी व अन्य क़िस्म के फूल शामिल थे। इन फूलों की महक किसी को भी अपनी ओर आकर्षित करने को काफी थी। यहीं पर एक्सरसाइज़ करने के लिए कई तरह के उपक्रम भी थे तो बच्चों के खेलने के लिए झूले, फिसलनपट्टी व कुछ फ़ैमस कार्टून क़िरदार बनाए गए थे। पार्क के एक कोने में बना था, बहुत ही ख़ूबसूरत सा स्विमिंग पूल, जिसमें सोसायटी के भद्र पुरुष व महिलाएं अधनग्न होकर नहाते-बतियाते और भी न जाने क्या-क्या करते थे। हालांकि यह दो तरफ़ से टीनशेड व जालियों से घिरा हुआ था; फिर भी इन महीन जालियों से भीतर का हर नज़ारा नुमायां हो जाता था। वैसे तो सबकुछ आधुनिक था व आलीशान था।
परंतु मुझे सबसे प्रिय लगता था; फाउंटेन.. मैनगेट की तरफ़ और पार्क से बिल्कुल सटा हुआ था। ग्रेनाइट की गोल चारदीवारी से क़ैद। यह चारदीवारी वास्तव में बैठने का सबसे बेहतरीन उपाय था। शाम होने के साथ ही फाउंटेन अपने असली सौंदर्य के साथ गुलज़ार होता.. रंग-बिरंगी रोशनी के साथ आसमान को छूने की ज़िद्द लिए उठती पानी की लहरें, जिस सुंदरता व शिद्दत के साथ उठती, उसी मनमोहक अंदाज़ के साथ वापस गिर जातीं। एक संगीत सा उत्पन्न होता और एक रिद्वम के साथ उठने-गिरने का यह क्रम देर रात तक चलता रहता।
मैं शुरू से ही अन्तर्मुखी क़िस्म का शख़्स रहा हूँ मगर न जाने क्यों इस फाउंटेन की ये लहरें मुझसे बात करती हुई प्रतीक होती थीं। कभी मायूस होकर आंखें चुराकर कहती कि समंदर की अल्हड़-आज़ाद लहरों पर हमें बड़ा रश आता है.. कितनी आज़ाद हैं, निरतंर चलती हैं और हम.. सांझ से रात तक बस..? तब मैं कहता कि तुम्हें उनकी आज़ादी दिखती है, थकन और रूदन नहीं दिखता..! और कभी यही चमचमाती लहरें मग़रूर होकर इतराती हुई कहती थीं, कि क्या समंदर की वो लहरें हमारी तरह हसीन हैं? क्या उनमें रोशनी और संगीत निकलता है..? तब मुझे कहना पड़ता कि सबकी अपनी-अपनी ख़ूबियां हैं और अपनी-अपनी ख़ामियां भी, तुम्हें दिन में रूकना पड़ता है और उन्हें निरंतर चलकर भी रात के अंधकार में खो जाना पड़ता है, सबकुछ क्षणभंगुर सा है..! मैं अक्सर घंटों बैठा कभी यहां तो कभी वर्सोवा या जुहू पहूंच कर कृत्रिम और नैसर्गिक दोनों सुंदरताओं से संवाद करता; सृजन रूपी आदमी की क़ुदरत के साथ यह हौड़ मुझे अच्छी लगती।
मुंबई आए मुझे दस महिने हो चुके थे, पर मेरी किसी से विशेष दोस्ती नहीं हो पाई थी। सुबह ऑफ़िस पहूंचकर कम्प्यूटर के सामने बैठता तो कब शाम होती, पता ही नहीं चलता। इस मशरूफ़ियत की वजह यह भी थी कि मैं अपने काम को लेकर आवश्यकता से अधिक ज़िम्मेदार था, मेरे कलिग अक्सर मुझसे क्लब, कॉफ़ीशॉप या कहीं सैर-सपाटे हेतु ऑफ़र करते, किंतु मेरे द्वारा बार-बार टालमटोल के बाद उन लोगों ने मुझे पूछना ही छोड़ दिया था। हालांकि मेरे अपने बॉस से बहुत बनती थी और इस बात को लेकर मुझ पर मीम्स भी ख़ूब बनते थे, कभी मेरे नाम ओंकारमल को लेकर तो कभी कपड़े पहनने से लेकर बातचीत को लेकर, विशेषत: मेरे डिक्शनंस को लेकर तो मेरा काफी मज़ाक बनता था और यही कारण था; कि मैं सबसे अलग अपने काम में मगन रहता था। हालांकि मेरी सैलरी अच्छी-ख़ासी थी, फिर भी खाना बनाने से लेकर झाड़ू-पौंछा, बर्तन सफ़ाई सबकुछ मैं बड़े आराम से कर लेता। इसमें मुझे न कोई शर्म महसूस होती, न कोई संकोच और मेरे इन क्रियाकलापों का मखौल सोसायटी में उड़ाया जाता। सोसायटी की कुछ भद्र महिलाएं मुझे देखकर न जाने कैसे-कैसे इशारे करती, कि मैं ख़ुद ही शर्मसार हो उठता।
इन दिनों मेरे बॉस का घर पर आना-जाना काफी बढ़ गया था। सच कहूं तो मुझे भी अच्छा नहीं लगता था, पर बॉस का कहना था - 'ओंकार, तुम्हें देखकर मुझे अपना व्यक्तित्व नज़र आता है और तुमसे बात करके मुझे बहुत रिलेक्स फ़ील होता है। ख़ैर, अचानक एक रात बॉस ने मुझे फ़ोन किया और अरज़ेंट हॉस्पिटल पहूंचने को कहा, कि तुम्हें एक हस्ती से मिलाता हूँ। जब मैं वहां पहूंचा तो एक बला सी ख़ूबसूरत महिला से मिला; मैंने ध्यान से देखा तो पाया कि उस महिला का एक हाथ और एक पैर नहीं था। बाज़ू से कटे हाथ पर ताज़ा घाव थे.. यह देखकर मेरी हालत बड़ी अजीब सी हो चली थी। अभी मैं ख़ुद को संयमित कर ही रहा था कि बॉस ने जैसे ही मेरा नाम लिया; उस महिला ने तुरंत अपना इकलौता हाथ मेरी ओर बढ़ा दिया- 'हैलो मिस्टर ओंकार.. बड़ी तारीफ़ सुनी है दीपराज से आपकी.. प्लीज़, हेव ए सीट!'
मैंने लगभग कांपते हुए हाथ मिलाया और वह हंस पड़ी, बोली- 'आप इतने नर्वस क्यों हो? चीअर-अप.. इट्स पार्ट ऑफ़ ए लाइफ़..!' मेरी आंखें उस महिला की बुलंद आवाज़ के साथ अनायास ही उसके चेहरे पर जम गई। जिनमें लैश मात्र भी दुख नहीं था, बल्कि ज़िंदादिली थी, वास्तव में उस रात मैं एक हस्ती से मिला था।
नाम था सुमायला अली सिंह.. मुझे आश्चर्य हुआ कि अली भी और सिंह भी?? और फिर एक दिलकश, दिलनवाज़ मौहब्बतों भरी एक दास्तान सुनी, जो ख़ूबसूरत बनकर दर्दनाक अंजाम के रूप मेरे सामने थी; सुमायला अली सिंह के रूप में..।
सरदार हरनाम सिंह नाम के एक पंजाबी बंदे संग सुमायला की आँखें चार हुई और ज़माने भर की बंदिशों, ज़ात-धर्म व फ़िरकापरस्ती को दरकिनार करते हुए दोनों ने शादी कर ली। दोनों तरफ़ से बहुत विरोध हुआ.. तलवारें भी चली, पर प्यार को नहीं काट पाई और दोनों ने मुंबई आकर शादी कर ली। फिर मिलकर एक छोटा सा ढाबा शुरू किया और ढाबा चल पड़ा। सात साल बीत चुके थे, पर दोनों के प्यार में इंच भर भी फ़र्क़ नहीं आया। पर वक्त को कुछ और ही मंज़ूर था; उस दिन दोनों की शादी की सातवीं सालगिरह थी, इसलिए वे पार्टी करके कार से वापस आ रहे थे, कि अचानक एक भीषण दूर्घटना हो गई, जिसमें हरनाम सिंह घटनास्थल पर मर गया और सुमायला..!
एक झटके में सबकुछ तहस-नहस हो गया। इस हादसे ने सुमायला को पूरी तरह तोड़ दिया, पर वह बग़ावत करके अपने सारे रास्ते बंद कर चुकी थी, इसलिए कहां जाती..? किसके कंधे पर सर रखकर रोती?? उसे तो ख़ुद को ख़ुद ही संभालना था।
दीपराज ही वो शख़्स था, जिसने मुश्किल हालात में सुमायला और हरनाम को सहारा दिया था। उसी ने ढाबा खोलने में दोनों की मदद की थी। आज भी वह सुमायला के साथ था; बिना कोई शर्त, बिना किसी स्वार्थ..! यही होती दोस्ती.. एक महिला व पुरुष के बीच का सबसे अलहदा रिश्ता होता है, दोस्ती ! भारतीय मानसिकता को अभी इसे समझने में बहुत समय लगना है। पर दोस्ती का रिश्ता वाकई सबसे महान रिश्ता होता है।
सुमायला पूरी तरह ठीक होकर वापस ढाबा संभालने लगी थी। उसने नकली पैर से चलना भी शुरू कर दिया था। उसे अपने अंग खोने से कहीं ज़्यादा दुख हरनाम सिंह को खोने का था और इस पाक़ मौहब्बत की बानगी 'सुमायला दा ढाबा' की जगह, अब 'हरनाम दा ढाबा' के रूप में देखी जा सकती थी। वैसे यह नाम का ढाबा था, वास्तविकता में तो यह एक फ़ैमिली रेस्टोरेंट था; जहां पर सभ्रांत घरों के लोग परिवार समेत खाने आते थे। यहां का खाना वाकई लज़ीज़ था, उस पर सुमायला का व्यवहार ऐसा कि ग्राहक बरबस खींचे चले आते थे। जब कोई ग्राहक सुमायला से उसके कटे हाथ और पैर के बारे में पूछता तो वह खिलखिलाती हुई पंजाबी लहज़े में कहती- 'मेरा हरनामा वड़ा आलसी है जी, जदो तक मेरी लात्त और हाथ दा स्वाद ना चखदा, बंदा चार्ज़ ही नहीं होंदा इसलिए एक हाथ और पैर बंदे दे नालं भिजवा दिये जी, हुण तुसी चल, मैं भी छेती आवां..।' उसकी बात सुनकर लोग अनायास ही हंस पड़ते थे।
सुमायला से मिलने के बाद मेरे आत्मविश्वास में अप्रत्याशित रूप से बढ़ोत्तरी हुई थी। दबा-दबा और गुमसुम सा रहने वाला अन्तर्मुखी ओंकारमल अब कॉन्फिडेंट व बातूनी 'ओमी' बन चुका था और इसका पूरा श्रेय सुमायला को ही जाता था। सुमायला की बातें बिल्कुल कविताओं सी होती थीं। जीवन में मिले इस ज़ख़्म को उसने बड़ी ज़ल्दी स्वीकार कर लिया था.. वह जब भी मिलती, हँसती-खिलखिलाती ही मिलती थी। वरना मज़बूत से मज़बूत चट्टान कहे जाने वाले लोगों को भी मैंने टूटकर बिखरते देखा था, मगर सुमायला की ज़िंदादिली में कोई फ़र्क़ नहीं आया था। हां, अब उसने लम्बे बालों को बेबीकट कर लिया था। यह प्रयोग भी उसके क़िरदार को आकर्षक बनाता था।
सुमायला के मोतियों जैसे दाँत और खिलखिलाता मुख-मंडल माहौल में ऊर्जा भर देता था। मुझे सुमायला की बातों और उसके ढाबे के खाने की ऐसी लत लगी, कि मैं ऑफ़िस से घर जाने की बजाय सीधा ढाबे पर जा पहूँचता। सच कहूं तो मुझे सुमायला से प्यार हो रहा था.. ज़िंदगी के प्रति उसका नज़रिया और उसका बिंदास अंदाज़ मुझे खींचता था। उठते-बैठते, सोते- जागते उसी का ख़्याल, उसी के ख़वाब, ज़ेहन में उसी की बातें गूंजती रहती। न चाहते हुए भी मैं सुमायला की ओर बहता चला जा रहा था। सच्च कहूँ तो इस पर मेरा कोई ज़ोर नहीं था. वह थी ही ऐसी..!
इसी दौरान मेरी इकलौती बहन भंवरी दीदी ने मेरी शादी के लिए एक लड़की का फ़ोटो व्हाट्सएप किया। लड़की ठीक-ठाक ही थी, पर मैं तो सुमायला को चाहता था। इसलिए मना कर दिया कि मुझे अभी शादी नहीं करनी.. बहन ने जीजा को मेरे पीछे लगा दिया। मैं कई दिनों तक टहलाता रहा और आख़िर भंवरी दीदी जीजा सहित मुंबई आ गई और यह बात दीपराज सर से होते हुए सुमायला तक जा पहूंची। सब मुझे इस तरह घेर कर खड़े थे, मानो मैंने कोई भारी अपराध कर दिया हो! भंवरी दीदी सुबकते हुए बोल रही थी- 'पता नहीं किसी शहरी छोरी नै म्हारै भाई पर जादू-टोणा कर दिया के.. किसी की बात सुणै ई कोनी..? अब थे ही समझावो??'
सुमायला मुझे डाँट रही थी- 'क्यों रूला रहे हो अपनी बहन को.. कर क्यों नहीं लेते शादी? क्या लड़की पसंद नहीं है??' मैंने कहा कि ऐसी कोई बात नहीं है.. दीपराज सर बोले- 'फिर क्या प्रोब्लम है तुम्हें?' मेरी कुछ समझ नहीं आ रहा था कि क्या कहूं पर सच्चाई तो यही थी कि मैं सुमायला के अलावा किसी अन्य लड़की के बारे में सोचना भी नहीं चाहता था! आख़िर, जब मेरे पास कोई रास्ता नहीं बचा तो मुझे सच्च कहना पड़ा.. जिसे सुनकर सब आवाक् थे। भंवरी दीदी और जीजा तो हिक़ारत से चले गए पर सुमायला की आँखों में पहली बार क्रोध की चिनगारियाँ थीं। वह मेरे पास आई और ग़ुस्से से बोली- 'तुमने मुझे समझ क्या रखा है.. मुझसे मेरी मर्ज़ी जाने बिना शादी का फ़ैसला करने वाले तुम होते कौन हो??' मैंने लगभग डरते हुए कहा- 'मुझे माफ़ कर दो सुमायला, मैं तुमसे कहने ही वाला था, पर हिम्मत नहीं पड़ी।' सुमायला ने चिल्लाते हुए कहा- 'तुम्हें क्या लगा कि एक अपाहिज़ लाचार लड़की पर तरस खाकर तुम उसका हाथ थामने के लिए कहोगे और वो मान जायेगी.. मैं शरीर से लाचार हूँ, ज़मीर से नहीं, मेरे पास मेरे हरनाम की यादें काफी हैं इसलिए मेहरबानी करके यहां से चले जाओ.. मैं अपनी लाइफ़ में बिल्कुल ख़ुश हूँ.. जाओ यहाँ से और फिर कभी मुझे अपनी शक्ल मत दिखाना..?' मैंने रौआंसे स्वर में कहा- 'सुमायला, प्लीज़ मेरी बात तो सुनो?' पर वह कुछ सुनने के मूड में नहीं थी। मैं निराश होकर वहाँ से लौट पड़ा। ज़िंदगी से कुछ ज़्यादा तो नहीं मांगा था मैंने.. बहुत आम सी ज़िंदगी थी मेरी। कुछ ख़ास थी तो सुमायला.. मुझे लगा था, मेरे प्रपोज़ करते ही वो रोती हुई मेरी बांहों में समां जायेगी, मगर..???
उस रोज़ घर पहुँचा तो दीदी और जीजा क्रोध से तमतमाये हुए बैठे थे। जीजा जी बहन को ताना मारते हुए बोले- 'बड़े गुल खिला रहा है तेरा भाई तो..!' और इतना कहकर बाहर चले गए। दीदी रोती हुई कह रही थी- 'गाँव में तो मुँह में जीभ तक नहीं हुआ करती थी और यहाँ आते ही प्यार की बातें करने लगा..बेशरम कहीं का!' मैंनें दीदी को समझाते हुए कहा- 'दीदी, क्या जान-पहचान की लड़की से शादी की बात करना बेशर्मी है?' दीदी एक दम से बिफर उठी, बोली- 'पसंद आने को तुम्हें यही एक औरत मिली थी, जिसका एक हाथ नहीं है, एक पैर नहीं है और अपने धर्म की भी नहीं.. विधवा है सो अलग.. बावला हो गया है तूं!'
'दीदी, विधवा है तो इसमें उसका दोष है.. रही विकलांग होने की बात तो यह अपनी-अपनी सोच है.. आदमी अपनी सोच से विकलांग होता है.. जिसे तुम विकलांग कहती हो, वह दस-दस परिवारों का पेट पालती है..।'
दीदी का हाथ तड़ाक से मेरे गाल पर पड़ा- 'डाकण ने कामण (जादू ) कर दिया है तेरे पर.. चल गाँव.. कोई डोरा-जंतर करवाती हूँ..?'
सुमायला के बारे में ग़लत बात सुनकर मुझे ग़ुस्सा तो बहुत आया, पर मैंने बड़े धर्य के साथ समझाते हुए कहा- 'कोई जादू-वादू नहीं किया उस बेचारी ने.. अरे उसे तो पता तक नहीं था कि मैं उससे प्यार भी करता हूँ.. जानती हो, उसने मुझे धक्के मारकर निकाल दिया.. क्योंकि वो जानती है कि तुम लोग कभी उसकी कदर नहीं करोगे.. एक औरत सारी दुनिया से लड़ सकती है, पर अपने लोगों से हार जाती है.. मैं शादी करूंगा तो सुमायला, नहीं तो.. ऐसे ही रहूंगा, बस।' इतना कहकर मैं भी वहां से चला गया. दीदी 'ओंकार.. ओंकार..!' पुकारती रही।
मैं इतनी ज़ल्दी हार मानने वालों में से नहीं था। इसलिए मैं बॉस के पास जा पहुँचा और उनसे फ़ेवर मांगा। दीपराज सर भी यही चाहते थे कि सुमायला अपनी ज़िंदगी नये सिरे से शुरू करे इसलिए वो तुरंत मुझे लेकर सुमायला के घर आ गए। मैं घबरा भी रहा था कि पता नहीं, सुमायला क्या रिएक्ट करे?
मगर उसने मुझे 'यूं' देखा; जैसे कुछ हुआ ही न था। वह कुर्सी पर बैठी अपना नकली पांव उतारती हुई बोली- 'तुमने कुछ खाया या नहीं?' मैंने 'ना' में मुंडी हिला दी तो वह अपने इकलौते पांव पर चिड़िया सी फूदकती कोने में रखी, स्टिक उठाती हुई बोली- 'तुम लड़के भी न, देवदास बनने का कोई बहाना नहीं छोड़ते..बैठो, मैं खाना लेकर आती हूँ!' मैं कुछ बोलता, इसके पहले ही दीपराज सर फुसफुसाते हुए बोले- 'डोंट वरी, आइल मैनेज़ इट..।'
'क्या सुमायला सच में मानेगी?' - मैंने रौंआसे स्वर में पूछा. दीपराज सर ने मेरे कंधे पर हाथ रखते हुए कहा- 'मुश्किल तो है, पर देखते हैं।'
इतने में वह खाने की प्लेट लिए 'ठकठक' चलती हुई आ गई और प्लेट सामने रखते हुए बोली- 'पहले कुछ खा लो, बाक़ी, बातें बाद में करेंगे.. ओके!' मैंने मना करना चाहा, पर उसकी प्रजेंस ऐसी थी, कि मैं चुपचाप प्लेट उठाकर खाने लगा। एक दाना तक हलख में जाने को तैयार नहीं था, उस पर सुमायला थी कि बिना पलकें झपकाये अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से मुझे घूंरती जा रही थी। वह ऐसी ही थी, डाँट कर खिलाने में माहिर.. सबके लिए फ़िक़्रमंद.. घर के पालतू कुत्ते-बिल्ली से लेकर बालकनी में चहचहाते पंछियों तक को समय पर खाना देती थी। होटल में बचने वाले खाने को पैक करवा कर वेटरों को स्टेशन और बस स्टैंड की ओर दौड़ा देती और कभी-कभी ख़ुद भी चली जाती और इसीलिए मुझे सुमायला से इश्क़ था। उसकी आत्मा शरीर से हज़ारों गुना सुंदर थी, अपने सभी अंगों के साथ सम्पूर्ण थी।
कांदिवली के पॉश संतूर अपार्टमेंट के सोहलवें फ़्लोर के इस थ्री बीएच की बालकनी में हाथ में, ठीक मेरे सामने सुमायला और दीपराज सर खड़े बात कर रहे थे। मेरे मोबाईल पर दीदी व जीजू के फ़ोन कॉल्स की बाढ़ सी आ रही थी, पर मेरे कान कुछ और ही सुनने को तरस रहे थे। दीपराज सर बोल तो रहे थे, पर मुझे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था। मैंने किसी तरह खाना ख़तम किया और दीपराज सर ने मुझे बुलाया.. सुमायला ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा- 'प्यार और अट्रेक्शन में फ़र्क़ समझते हो?'
मैं कुछ कहने ही वाला था कि दीपराज सर बोल पड़े- 'सुमो, दिस इज़ नोट अ अट्रेक्शन.. ये तुमसे वाकई प्यार करता है। पिछले दो साल से मैं जानता हूँ इसे! तुमसे फ़िगर में कई गुना अच्छी लड़कियों ने डोरे डाले इस पर, मगर इस बंदे से कभी आँख उठाकर भी नहीं देखा उन्हें.. सबसे अहम बात, तुम्हारी रिस्पेक्ट करता है इसलिए नहीं कि तुम ख़ूबसूरत हो या तुम डिसेबल हो.. बल्कि तुम्हारी ज़िंदादिली, तुम्हारा नेचर पसंद है.. तुम जैसी हो, वैसी पसंद हो इसे और क्या बच्चे की जान लोगी तुम?'
सुमायला ने ग़ौर से मेरी तरफ़ देखते हुए कहा- 'क्या तुम सचमुच इस 'अधूरी' के साथ अपनी पूरी लाइफ़ जी पाओगे? ' मेरी अपने आप आँखें भीग गई. मैंने कहा- 'मैं तो तुम्हारे बिना अधूरा भी नहीं हूँ सुमायला.. मुझे नहीं पता कि मुझे क्या कमिटमेंट करना चाहिए पर ज़िन्दगी में जो मिलेगा, आधा-आधा बांट लेंगे.. ग़म हो या ख़ुशी..।'
सुमायला ने अपने आँसुओ को जज़्ब करते हुए चेहरा घूमा लिया, मगर उसकी सिसकियां सुनाई दे रही थी. मैंने जैसे ही उसके कंधे पर हाथ रखा, वह लरजती आवाज़ में बोल पड़ी- 'मैंने अपना सबकुछ खोकर भी ख़ुद को कभी बिखरने नहीं दिया.. तुम मुझे हथेली में चांद दिखाकर, जीने की उम्मीदें जगा तो रहे हो, मगर कल को ज़माने की बातों में आकर, उम्मीद के इस चांद को ग्रहण तो नहीं लगा दोगे...?'
'ऐसा कभी नहीं होगा सुमायला.. मैं मरते दम तक तुम्हारा साथ नहीं छोड़ूंगा.. मेरा चाँद भी तुम्हीं हो और उम्मीद भी तुम्हीं हो; इस चाँद पर कभी ग्रहण नहीं लगने दूंगा..!' - मेरे इतना कहते ही सुमायला ने झट से मुझे अपने आलिंगन में ले लिया। उसकी आँखें झर रही थी और कांपते अधर मुस्कुरा रहे थे। अपने आंसू पौंछते हुए बोली वह- 'अपने दीदी और जीजू को क्या कहोगे?'
'उन्हें अच्छी तरह से पता है कि मैं कितना ज़िद्दी हूँ.. जो ठान लेता हूँ, वो करके रहता हूँ. इवन उन्होंने तो मैसेज़ भी छोड़ा है कि तुम्हारी जो मर्ज़ी हो करना, पर कुछ उल्टा-सीधा मत कर बैठना..।' - मैंने मोबाइल स्क्रीन पर दीदी का व्हाट्सएप दिखाते हुए कहा और फिर झट से दोनों की सेल्फ़ी खींचकर दीदी को सेंड कर दी। हमारे पीछे खड़े दीपराज सर मुस्कुरा रहे थे।
कपिलदेव आर्य - मण्डावा कस्बा, झुंझणूं (राजस्थान)