उफ़ानें हैं जवानी की - ग़ज़ल - डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

उफ़ानें हैं जवानी की, तरंगें  यों  उफ़नती   हैं।
नशीली नैन मधुशाला, बनी मादक मचलती हैं। 
सुहानी चाँदनी रातें,  अकेली  वो  थिरकती हैं।
सजी सोलह शृङ़गारों से, जवानी में बहकती है।
पलकों में छिपा साजन, गौरैया सी फुदकती है।
इठलाती ये मतवाली, बनी चपला निखरती है।
अभिलाषा मुहब्बत की, कयामत बन सँवरती है।
वियोगिनी बन सावनी में, वारिस में महकती हैं।
मिलें  साजन गात्र भींगे, दुपट्टा तन सरकती है।
नितम्बों से  बोझिल ये, वक्षस्थल दमकती   है।
गुलाबी गालरसीली सी, होठों पर झलकती है।
पिया अलगाव तन्हाई, दिली दिल में दहकती है।
बहाती अश्क मानी वो, मनोहर बन टपकती है।
बिलखती देख सजनी को, बलम खुशियाँ दमकती है। 
बना घनघोर बादल वो, देख सजनी दहकती है।

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" - नई दिल्ली

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