यही तो जीवन व्यथा है - कविता - सुषमा दीक्षित शुक्ला

बस एक मुट्ठी देह मे आकाश जैसे मन संवरते।
नयनों की कोठरी में गगन चुंबी स्वप्न पलते।
हे मनुज दिग्भ्रमित ना हो यही तो जीवनव्यथा है।
आरम्भ से ये अंत तक संसार की अद्भुत कथा है।
घर गृहस्थी मे सदा से, कष्ट  हैं मेहमान होते।
दुख न होते तो सभी, सुख भोग से अज्ञान होते।
क्या सही क्या गलत के जो भेद से अनजान होते।
न्याय के सम्मान को हठधर्मिता से वो कुचलते।
कर्म पथ पर नित्य बढ़ना बस यही मानव धर्म है।
है फल प्रभू के हाथ में बस हाथ अपने कर्म है।

सुषमा दीक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम, लखनऊ (उ०प्र०)

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