रात दिवस नित रटत हूँ - कविता - सुषमा दिक्षित शुक्ला

सुनु आया  मधुमास सखि,
लगा हृदय बिच बाण ।

देहीं तो सखि  है यहाँ ,
प्रियतम ढिंग है  प्राण ।

किहिके  हित  संवरूं  सखी,
केहि हित करूं सिंगार।

बाट निहारु रात दिन ,
क्यूँ सुनते  नाहि पुकार।

ऋतु बासन्ती सुरमई ,
पिया मिलन का दौर ।

पियरी सरसों खेत में ,
बगियन  में है  बौर ।

यह कैसो मधुमास सखि,
जियरा  चैन ना पाय ।

नैनन से आंसू  झरत ,
उर बहुतहि अकुलाय ।

पिय कबहूँ तो आयंगे ,
वापस घर की राह ।

बाट निहारूँ दिवस निसि ,
उर  धरि उनकी चाह।

सबके प्रियतम संग हैं ,
बस मोरे हैं परदेस।

जियरा तड़पत रात दिन ,
याद नहीं कछु शेष ।

मन मेरो पिय सँग  है,
ना भावे कोई और ।

वह दिन सखि कब आयगो ,
जब पिय सिर साजे मौर ।

रात दिवस  नित रटत हूँ,
मैं उनही को नाम ।

उनके बिन ना  चैन  उर,
ना  मन को आराम ।

डर लागत है  सुनु सखी ,
वह भूले तो नाह ।

हम ही उनकी प्रेयसी ,
हम ही उनकी चाह।

ऋतु बासंती सुनु ठहर ,
जब लौं  पिया न आय ।

तू ही सखि बन जा मेरी,
प्रियतम  दे मिलवाय ।

सुषमा दिक्षित शुक्ला - राजाजीपुरम , लखनऊ (उ०प्र०)

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