महकी सबा चले तो मैं ग़ज़ल कहूँ
कितना हसीन है मंज़र हरा-भरा
बारूद नहीं उगे तो मैं ग़ज़ल कहूँ
अपने वतन में बेवतन है क्यों आदमी
हाकिम जरा कहे तो मैं ग़ज़ल कहूँ
दर-दर भटक रही पामाल ज़िन्दगी
मंजिल इसे मिले तो मैं ग़ज़ल कहूँ
ऐसी घटा उठे सरहद के पार भी
सीली हवा बहे तो मैं ग़ज़ल कहूँ
मनजीत भोला - कुरुक्षेत्र (हरियाणा)