बाग़ों में गुल खिले तो मैं ग़ज़ल कहूँ - ग़ज़ल - मनजीत भोला

बाग़ों में गुल खिले तो मैं ग़ज़ल कहूँ
महकी सबा चले तो मैं ग़ज़ल कहूँ

कितना हसीन है मंज़र हरा-भरा
बारूद नहीं उगे तो मैं ग़ज़ल कहूँ

अपने वतन में बेवतन है क्यों आदमी
हाकिम जरा कहे तो मैं ग़ज़ल कहूँ

दर-दर भटक रही पामाल ज़िन्दगी
मंजिल इसे मिले तो मैं ग़ज़ल कहूँ

ऐसी घटा उठे सरहद के पार भी
सीली हवा बहे तो मैं ग़ज़ल कहूँ

मनजीत भोला - कुरुक्षेत्र (हरियाणा)

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