वो पत्र - कविता - जितेन्द्र कुमार


आज भी वो पत्र रखा  हूँ,
जिनमें वादें औ' कसमें हैं|
बस मेरी उसकी  दास्तानें,
कितने नामुकम्मल नगमें हैं|

                          मंजिल के करीब होकर भी,
                          हमसफ़र का साथ छूट गया|
                          सफर तो भी जारी  है  दोस्त,
                          बस अश्कों का बाँध टूट गया|

कभी कभी लगता है, अब
मंजिल पाकर क्या  होगा?
पर वापसी है  सोंच से परे,
मेरी आहे  ही  बयां  होगा|

                           इस कशमकश में भी यार,
                           चित्त से उठती  है आवाज|
                           जिंदगी का यही मर्म  है  रे,
                           यहां नहीं मिल पाता साज|

इश्क की यह अधूरी कहानी,
कहती है तू पीता रह  गरल|
मुड़के यूँ अतीत को न  देख,
वक्त के कारवाँ  संग तू चल।

जितेन्द्र कुमार

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