जल - कविता - गौतम कुमार


बढ़  रही  है  इस  धरा  पर ,  प्रतिदिन  आबादी।
व्यर्थ ना बहाएँ जल को , करें ना इसकी बर्बादी।।

दुनियाँ को अब दिखा रहें हो , मूर्ख तुम तमाशे।
अब भी ना संभले तो , मरोगे एक दिन  प्यासे।।

ना रहेगा जल तो , ना  काम  आगेगा  भूषण।
मत फैलाओ हे! मानव , इस धरा पर प्रदूषण।।

प्रकृति सुख से हो रहें है , हम सभी अब वंचित।
इस  धरा  के  गर्भ  में  , स्वच्छ  जल है संचित।।

कर रहा है मानव अब , नित जल का दुरुपयोग।
फैल  रही है इस धरा पर , नाना  प्रकार के रोग।।

जल  बिना  ये  जीवन ,ना जीना है आसान।
व्यर्थ बहाकर ना करें , जल का यूँ नुकसान।।    

कहे कविराय गौतम , बहे अब गर्म बयार।
बूँद - बूँद जल बचाने को ,रहें हम तैयार।।

गौतम कुमार
बारीचक, मुंगेर (बिहार)

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