हमें आगे देश बढ़ाना होगा - कविता - मयंक कर्दम


बहती नदी, इधर-उधर,
मंजिल की आस लगाए,
पत्थर को बिना  बहाए,
बाढ़ के लिए नहीं ठहरती,
माटी से मार्ग बनाना होगा,
हमें आगे देश बढ़ाना होगा।

चट्टानों से  भले  गिरती,
घाव समेट,आगे तेज चलती,
स्वयं के हर कायदा से बंधी,
अंजाम की करती न परवाह,
प्राकृति का पाठ पढ़ाना होगा,
हमें आगे  देश  बढ़ाना  होगा।

कई राहगीर गुजरते उस पर,
अपना मजाक अनदेखा छोड़,
नाविक की नाव आनंद लेती, 
कई प्रश्न का मौन हल देती,
बुद्धि को अब चलाना होगा,
हमें आगे देश बढ़ाना होगा।

हिमालय से,निष्कासित पूर्व,
सूर्य की किरण से चमकती,
खेतों में पुष्पों को महकाती,
अपना शिक्षक स्वयं ठहरी,
कीचड़ बनने से बचाना होगा,
हमें आगे  देश  बढ़ाना  होगा।

सफर में अटकी,झीलो में,
आत्मविश्वास पर निर्भर रहती,
खुशी में झूम,बस आगे बढ़ती,
विजय ले मंजिल तय करती,
नदी जैसा मानव महकाना होगा,
हमें आगे देश बढ़ाना होगा।


मयंक कर्दम
मेरठ(उ०प्र०)

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