एक गरीब लाचार - कविता - कवि कुमार निर्दोष


रख काँधे गुब्बारे निकला, एक गरीब लाचार
मैने टोका बाबा क्या तुमको नही जान से प्यार

फैल रही महामारी देश में दुखी है कोना कोना
क्या तुमको नही दिखता हैं ये जालिम कोरोना

वो नम आँखों से बोला साहब दिखता है कोरोना
लेकिन साहब कैसे देखू मैं, भूखे बच्चों का रोना

तुम्ही बताओ साहब हम, मजबूर कहाँ जायेंगे
कोरोना से बच गये तो, भूख से हम मर जायेंगे

कैसे ना निकलूँ घर से साहब मुझको समझाना
दो दिन से बच्चे भूखे हैं मेरे ना गया पेट में दाना

व्यथा कथा सुन उसकी, कलेजा हिल गया मेरा
घूम गया आँखों में मेरी, भूखे बच्चों का चेहरा

मैं बोला घर जाओ बाबा शाम को मैं आऊँगा
जब तक है कोरोना, खाना नित मैं पहुँचाऊँगा

निर्दोष की सबसे विनती, गर देखो ऐसा मजबूर
यथा संभव हो उतनी उसकी करना मदद जरूर

कवि कुमार निर्दोष

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