विवशता - कविता - देवेश द्विवेदी 'देवेश'

विवशता - कविता - देवेश द्विवेदी 'देवेश' | Hindi Kavita - Vivashata
विवश था मैं,
विवशता की परिधि से
बाहर आने में।
विवश था यह सोच
कि जब खेलते थे
खेल बचपन में
आँख मिचौली का,
बाँध पट्टी आँखों पर
कई परत की,
फिर भी होता था आभास
मिल जाती थी झलक
कभी-कभी सामने आने वाले
कुछ चेहरों की,
फिर थी विवश क्यों
न्याय की देवी?
बाँध पट्टी आँखों पर
एक परत वाली।
क्यों नहीं होता था
आभास उसे
न्याय और अन्याय का?
क्यों नहीं लगता था फ़र्क़
गुनहगार और बे-गुनाह में?
क्यों नहीं दिखती थी झलक
उसे सच और झूठ की?
क्यों लेती थी निर्णय
करती थी फ़ैसला
दिखाए गए सबूतों के
आधार पर?
बाँध पट्टी आँखों पर
ले तराजू हाथ में
वो तोलती थी क्या भला?
आ गया वो दिन, 
जब छँट गई धुँध
मिट गया कुहासा, 
हट गई पट्टी आँखों से 
छूट गई तलवार हाथों से,
आ गई नई चमक
उसके अस्तित्व में।
अब तलवार से भी तेज़
धारदार संविधान है हाथ में,
नज़रों में है शक्ति न्याय की,
परख का साहस भी साथ में।
जगी है नई आस,
जागा है विश्वास।
होगा दूध का दूध,
पानी का पानी।
नहीं दोहराई जाएगी,
अन्याय की कहानी।

देवेश द्विवेदी 'देवेश' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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