देवेश द्विवेदी 'देवेश' - लखनऊ (उत्तर प्रदेश)
विवशता - कविता - देवेश द्विवेदी 'देवेश'
मंगलवार, नवंबर 11, 2025
विवश था मैं,
विवशता की परिधि से
बाहर आने में।
विवश था यह सोच
कि जब खेलते थे
खेल बचपन में
आँख मिचौली का,
बाँध पट्टी आँखों पर
कई परत की,
फिर भी होता था आभास
मिल जाती थी झलक
कभी-कभी सामने आने वाले
कुछ चेहरों की,
फिर थी विवश क्यों
न्याय की देवी?
बाँध पट्टी आँखों पर
एक परत वाली।
क्यों नहीं होता था
आभास उसे
न्याय और अन्याय का?
क्यों नहीं लगता था फ़र्क़
गुनहगार और बे-गुनाह में?
क्यों नहीं दिखती थी झलक
उसे सच और झूठ की?
क्यों लेती थी निर्णय
करती थी फ़ैसला
दिखाए गए सबूतों के
आधार पर?
बाँध पट्टी आँखों पर
ले तराजू हाथ में
वो तोलती थी क्या भला?
आ गया वो दिन,
जब छँट गई धुँध
मिट गया कुहासा,
हट गई पट्टी आँखों से
छूट गई तलवार हाथों से,
आ गई नई चमक
उसके अस्तित्व में।
अब तलवार से भी तेज़
धारदार संविधान है हाथ में,
नज़रों में है शक्ति न्याय की,
परख का साहस भी साथ में।
जगी है नई आस,
जागा है विश्वास।
होगा दूध का दूध,
पानी का पानी।
नहीं दोहराई जाएगी,
अन्याय की कहानी।
साहित्य रचना को YouTube पर Subscribe करें।
देखिए साहित्य से जुड़ी Videos
साहित्य रचना कोष में पढ़िएँ
विशेष रचनाएँ
सुप्रसिद्ध कवियों की देशभक्ति कविताएँ
अटल बिहारी वाजपेयी की देशभक्ति कविताएँ
फ़िराक़ गोरखपुरी के 30 मशहूर शेर
दुष्यंत कुमार की 10 चुनिंदा ग़ज़लें
कैफ़ी आज़मी के 10 बेहतरीन शेर
कबीर दास के 15 लोकप्रिय दोहे
भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है? - भारतेंदु हरिश्चंद्र
पंच परमेश्वर - कहानी - प्रेमचंद
मिर्ज़ा ग़ालिब के 30 मशहूर शेर

